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________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। ऊपर पंच शतकपर सोहै । नंदनवन देखत मन मोहै ।चै० ॥३॥ साढ़े चासठ सहसउंचाई । वन समनस शोभै अधिकाई चै॥४॥ ऊंचाजोजन सहस छतीसं। पांडुकवन सोहै गिरिसीसं चै०५। चारों मेरु समान वखानो। भूपर भद्रसाल चह जानो।चैगा। चैत्यालय सोलह सुखकारी। मनवचतन वंदनाहमारी चै० ॥७॥ ऊंचे पांच शतकपर भाखे। चारों नंदनवन अभिलाखे ।चै०।। चैत्यालय सोलह सुखकारी।मनवचतन वंदना हमारी चैक साढे पचवन सहस उतंगा। बन सोमनस चार बहुरंगाचै०११०॥ चैत्यालय सोलह सुखकारी।मनवचतनवंदना हमारी।चै०॥१२॥ उचेसहस अट्ठाइस बताये। पांडुक चारों वन शुभ गाये।०१२ चैत्यालय सोलह सुखकारी ।मनवचतनवंदना हमारी।चै०॥१३॥ सुरनरचारनवंदन आवै । सो शोभा हम फिह मुख गावैचै०१४ चैत्यालय अस्सीसुखकारी। मनवचतनवंदना हमारी ।चै०१५॥ दोहा। पंचमेरकी आरती, पढ़े सुनै जो कोय। • 'धानत' फल जानें प्रभू, तुरत महासुख होय ॥१६॥ ॐ हीं पञ्चमेरुसंबंधिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो अयं निर्यपामि॥ रत्तत्रयपूजा। दोहा। . चढंगतिफनिविपहरनमणि, दुखपावक जलधार शिवसुखसुधासरोवरी, सम्यकत्रयो निहार ॥१॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्रवतरावतर । संवौषट् । ॐ ह्रीं सम्यग्रतत्रय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः । .
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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