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________________ १६२ जैन-अन्य-संग्रह। ताते जल ल्यायो तुम ढिग आयोशांत सुधारस अब पायो।। श्री वीस जिनेश्वर दया निधेश्वर जगत महेश्वर मेरी बिपत हरो। भव संकर खंडो आनंद मंडो मोहि निजातम सुद्ध करो ॥शा पर चाहं अनल मोह दहत सतत अति दुःख सहत भव विपत भरत तुम ढिग भयो । तातें ले चावन तुम अति पावन दाह मिटावन सुक्ख करो ॥२॥ फिर जनम धरत फिर मरण करत भव भ्रमर भ्रमत बहु-नाटक नट अति थकित भयो। तातें शुम अक्षित तुम पद अचंत भव भय तर्जित सुखद भयोश्री मोह काम ने सतायो चारों बामा उर लायो सुध दुध विसरायो बहु विपत गमायो नाना विधकी। तातें घर फूलं तुम निरशूलं मोह विभूल कर अबकी ॥श्री।।४ मोह छुधा ने संतायो तब आशना बढ़ायो बहु याचना करायो तिहुँ पेट न भरायो अति दुःख पायो। ताते चरू धारी तुम निरहारी मोह निराकुल पद बगसो ॥श्री०॥५॥मोहतम को चपेट तातें भयो हो अचेत कियो जड़ ही से हेत भूलो अप्पा पर भेद तुमशरण लही।दीपक उजयारों तुम दिन धारी स्वपर प्रकासों नाथ सही । श्री०॥ ६ कर्म ईंधन है भारी मोको कियो है दुखारी ताकी विपत गहाई नेक सुध हू न धारी तुम चरण नमं ।। ताते बर धूपं तुम शिव रूप कर निज भूपं नाथ हमें ॥श्री०॥ अंतराय दुःख दाई मेरी शक्ति छिपाई मोसो दीनता कराई मोकों अति दुःख दाई भयो आज लो प्रभू । तातें फलल्यायो तुम दिग आयो मोक्ष महा फल देव प्रभू श्रीगाटा आठों कर्मो ने सतायो मोकों दुःख उपजायो मोसो नाचहू नचायो भाग तुम पिसावायो अव बच जाऊँबसु द्रव्य समारी तुम ढिग धारी हे भव तारी शिव पाऊँ । श्री बीस जिनेश्वर दया निधेस्वर जगत महेश्वर मेरी बिपत हरो । भव संकट
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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