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________________ १०२ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। तीनो अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दशा। प्रगटी जहाँ दगज्ञानब्रह्म थे, 'तीन धा एकै लशा ॥8॥ ... परमाण नय निक्षेपको न उद्योत, अनुभवमें दिखै । . : . दृग-ज्ञान सुख-बल मय सदा नहि, आन भाव जो मो विखें। मैं साध्य साधक में अवाधक, कर्म अरतसु फल नितें . : . . चितपिंड चंद अखंड सुगुण करंड, च्युन. पुनि कलनित ॥१०॥ यो चिन्त्य निनमें थिर भए तिन, अकथ जो आनन्द लह्यो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र का अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो ॥ . .. .. तबही शुकल ध्यानाग्नि कर चउ, धात विधि कानन दह्यो। सव,लख्यो केवल ज्ञान करि भवि, लोककं शिवगम कहो ॥११॥ पुनि घाति शेष अघात विधि, छिनमाहि अष्टम भू बसे। वसु कर्म विनसै सगुण वसु, सम्यक्त आदिक सब लसै॥ संसार खार अपार पारा, वार तरि तीरहिं गये। . . . अविकार अकलं अरूप शुध, चिद्रप अविनाशी भये ॥ १२ ॥ निजमाहिं लोक अलोक गुण, · पर्याय प्रतिविम्बित थये। . रहि हैं अनन्तानन्त काल-यथा तथा शिव परणये॥ . .: धनि धन्य हैं जे जीव नरं भव, पाय यह कारज, किया।. . . तिनही अनादी भ्रमण पंच, प्रकार तज बर. सुख लिया ॥१३॥ मुख्योपचार दुभेद यों बड़, भाग़ रत्नत्रय धरें।...... अरु धरेंगे ते शिव लहैं. तिन, सुयशजल जगमल हरैं। ..... इमि जानि.आलस हानि साहस, ठानि. यह शिख आदरो। जवलो न रोग जरा गहै तब, लो जगत निजहित करो ॥१४॥ यह राग. आग दहे सदा.. तात. समामृत पीजिये। चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद लीजिये। कहा रच्यों पर पदमें न तेरो, पद यहै क्यों दुख सहै,। " ... अब दौल होऊं सुखो स्वपद रचिं, दाव मत चूको यहै ॥१५॥ .
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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