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________________ ५६ जैन-ग्रन्थ-संग्रह । होऊँ नहीं कृतघ्न कभी में द्रोहं न मेरे उर श्रावे । • गुणग्रहण का भाव रहे नित, कोई बुरा कहो या. अच्छा, लाखों वर्षो तक जीऊ या अथवा कोई कैला ही भय या लालच देने आवे । दृष्टि न द्वोषों पर जावे ॥ ६ लक्ष्मी मावे या जावे, l मृत्यु आज ही आ जावे । Pya तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे ॥ ७ ॥ कमी न घवरावे । नहि भय खावे । ** *" अटवी से यह मन, दृढतर वन जावे । सहनशीलता दिखलावे. ॥ ८ ॥ J. • होकर सुखमें भग्न न फूले, दुखमें पर्वत- नदी - श्मशान - भयानक रहे घडोल - अकंप निरन्तर इष्टवियोग अनिष्टयोग में सुखी रहें. सर्व जीव जगत के कोई कमी न घवरादे । वैरि-पाप- अभमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे । घर घर चर्चा रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हो जायें । ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज जन्म-फल सर्व पार्श्वे nsn ईति भीति व्यापे नहि जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे ! धर्मनिष्ठ होकर राजा मी न्याय प्रजा का किया करे। रोग-मरी-दुर्भिक्ष, न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे । परम अहिसा धर्म जगत में, फैल सर्वहित किया करे ॥ १० ॥ फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर पर रहा करे । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहि कोई सुख से कहा करे । बनकर सब 'युग-वीर हृदय से देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से सब दुखं संकट सहा करें ॥११॥ +
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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