SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। By: समाधिमरण भापा (पं० सूरचन्दजी रचित) धन्दो श्रीवहन्त परम गुरु, जो सवको सुखदाई । इसजगमें दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई । अब मैं अरज कर नित तुमसे, कर समाधि उरमाहीं। अन्तसमयमें यह वर माँगू, सो दीजे जगराई ॥१॥ भव भवमें तन धार नये मैं, भव भव शुभ सँग पायो। भव भरमें नप ऋद्धि लई मैं, मात पिता सुत थायो। भव भयमें तन पुरुप तनो घर, नारीहूँ तन लीनो। भव भरमें मैं भवो नपुसक, आतमगुण नहिं चीनो ॥२॥ भव भवर्मे सुरपदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। भव भव में गति नरकतनी धर, दुख पायो विधयोगे । भव भवमें तिर्यच योनि घर, पायो दुख अति भारी। भव भक्में साधर्मी जनको, संग मिलो हितकारी ॥३॥ भव भवमें जिनपूजन कोनी, दान तुपानहि दीनो। भव भवमें मैं समवसरणमें, देखो जिनगुण भीनो ॥ एती वस्तु मिलो भव भवमें, सम्यक् गुण नहिं पायो। ना समाधियुत मरण करा मैं, ताते जग भारमायो॥४॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरहिं कोनो। एक बारह सम्यकयुत मैं, निज आतम नहिं चोनो॥ जो निजपरको ज्ञान होय तो, मरण समय दुखदाई। देह विनाशी मैं निजमाशो, जोति स्वरूप सदाई ॥५॥ विषय कपायनमें वश होकर, देह थापनो जानो। कर मिथ्याशरधान हिये विच, आवम नाहि रिछानो ॥
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy