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________________ २३ जैन-ग्रन्थ संग्रह ! 1 पूरब दक्षिण नमू, दिशा पश्चिम उत्तर मैं । जिन - गृह वंदन करूँ हरु भव पाप - तिमिर मैं ॥ २६ ॥ 'शिरोनती मैं करूं' नमू ं मस्तक कर धरि कैं आवर्त्तादिक क्रिया करू मन वच मद हरि कै ॥ तीन लोकं जिन भवन माहिं जिन हैं जु अकृत्रिम | कृत्रिम हैं इयभर्द्धद्वीपमाहीँ बंदों जिम ॥ २७ ॥ आठको डिपरि छप्पन लाख जु सहस सत्याणु । चारि शतकपरि असी एक जिनमंदिर जाए ॥ व्यंतर ज्योतिषमाहि संख्यरहिते जिनमंदिर | 1. जिन-गृह बंदन करूं हरहु मम पाप संघकर ॥ २८ ॥ सामायिक सम नाहिं और कोड वैर मिटायक ! सामायिक सम नाहि और कोउ मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुव्रत आदि अंत सप्तम गुणथानक । · यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक ॥२६॥ जे भवि आतम काज करण उद्यम के धारी । ते सव काज विहाय करो सामायिक सारी ॥ राग दोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब । बुध महाचंद्र विलाय जाय तातै कीया अव ॥२०॥ इति सामायिक भाषा पाठ समाप्त । श्रीश्रमितगति आचार्य विरचित ( सामायिक पाठ संस्कृत ) । · सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥ >. 1
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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