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________________ १०८ बड़ा जन-प्रन्य-संग्रह। सर्वोत्तम कुलधर्म, पाये हो गिरिधर तो सत्य तत्व छानलो। होकर प्रमाद वश काल क्षेप करो मत, सबकी भलाई करो निजको पिछानला ॥ ११ ॥ - धर्म भावना। बाहरी दिखावटों को रहने न देता कहीं, सारे दोष दूर कर सुख उपजाता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष, माया, मिथ्या, तृष्णा, मद, मान,मल सबको नसाता है । तन मन वाणी को बनाता है विशुद्ध और, पतित न होने देता ज्ञान प्रकटाता है। गिरिधर धर्म प्रेम एक सत्य जगवीच, परमात्मतत्व में जो सहज मिलाता है ॥ १२॥ सामायिक । . . हो सत्त्वपै सखिपना, मुद हो गुणी पै । माध्यस्थ भाव . मम होय विरोधियाँपै ॥ दुःखार्तपै अयि दयाधन हो दया ही। हों नाथ कोमल सदा परिणाम मेरे ॥१॥ ___धारूंक्षमा सुमृदुता ऋजुता सदा मैं । त्यो सत्य,शौच, प्रिय संयम भी न.त्यागू ॥ छोडूं नहीं तप, अकिंचन, ब्रह्मचर्य, है रत्नराशि दशलक्षण धर्म मेरा ॥२॥ मैं देवपूजन कर, गुरुभक्तिसाधं । स्वाध्याय में रचं सुसंयम आदरू मैं ॥धारू प्रभो तप, निरंतर दान दूं मैं। षट्कर्म ये-नितकरू जबलौं गृही हूं ॥३॥ पाऊं महासुख प्रभो, दुख वा उठाऊं। सोऊं पलंग-पर, भूपर ही पडू वा ॥ सोहे तथापि समता अति उच्च मेरी। सामायिक प्रबल हो मम नाथ ऐसा॥४॥ . चाहे रहूं भवनमें, वनमें रहू',या-प्रासाद में बस रहूं अथवा कुटीमें ॥ साह तथापि समता अतिउच्च मेरी-सामायिक '- प्रबल हो मम नाथ ऐसा ।।५॥ .. '
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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