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________________ १०६ पड़ा जैन-प्रन्थ-संग्रह। दारा, परिवार, किसी का न कोई साथी सब हैं अकेले हो। गिरिधर छोड़कर दुविधा न सोचकर, तत्त्व छान बैठके एकान्त में अकेले ही। कल्पना है नाम रूप झूठे राव रंक भूप, अद्वितीय चिदानन्द तू तो है अकेले ही ॥४॥ - सन्यत्व भावना। घर बार धन धान्य दौलत खजाने माल, भूषणा वसन बड़े बड़े ठाठ न्यारे हैं। न्यारे न्यारे अवयव शिर धड़ पांव न्यारे, जीभ त्वचा आँख नाक कान आदि न्यारे हैं। मन न्यारा चित न्यारा चित्त के विकार न्यारे, न्यारा है अहंकार सकल कर्म न्यारे हैं । गिरिधर शुद्ध बुद्ध तूतो एक चेतन है, जग में है और जो जो तासे सारे न्यारे हैं ॥५॥, - अशुचि भावना। .. - गिरिधर मल भल .सावू खूब न्हाये धोये, कीमती 'लगाय तेल बार बार बाल में। केवड़ा गुलाब चेला'मोतियां के संघे इत्र, खाये खूब माल ताल पड़े खोटी चाल में पहने बसन नीके निरख निरख कांच, गर्व कर देह का न सोचा किसी काल में । देह 'अपवित्र महा हाड़ मांस रक्त भरा, थैला मलमूत्र का बँधा है नलजाल में ॥६॥ । ..., , प्राश्रव भाषना', मोह की प्रबलता से कषायों की तीवता से, विषयों में प्राणी मात्र देखो फंस जाते हैं । यहां फंसे वहां फंसे यहां पिटे वहां कुटे, इसे मारा उसे ठोका पाप यों कमाते हैं। पड़ते परन्तु जैसे जैसे हैं कषाय मन्द, वैसे वैसे उत्तम प्रकृति रच पाते हैं । गिरिधर बुरे भले मन बच काय योग, जैसे रहें .सदा वैसे कर्म बन आते हैं ॥७॥
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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