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________________ वारहमासा-राजुला करिये। मेरे जी में ऐसी आवे महान धरिये । सब तजदार श्रृंगार, नजूसंसार. क्यों भव मंझार में जी भरमाऊ। फिर पराधीन तिरिया का जन्म नहिं पाऊं ॥ (झर्वट) सबसुन लो राजदुलारी। दुख पड़गया हम पर भारी। तुम तज दो प्रीति हमारी-कर दो संयम की त्यारी॥ (झड़ी)-अब आगया पावस काल, करो मत राल, भरे सयताल महा जल बरसे। विन परसे श्रीभगवन्त मेरा जी तरसे । मैं तज दई तीज सले.न, पलट गई पोन, मेरा है कौन मुझे जग तरना। नम नेम चिन दमें जगत क्या करना ॥ भादों मास ( झड़ी) सखि भादी भरे तलाव, मेरे चितचाच. करगी उछाव से सोलहकारण । कर दसलक्षण के व्रत से पाप निवारण | करू' रोटतीज उपवास, पञ्चमी अकाल, अष्टमी खास निशल्य मनाऊ । नपकर सुगन्ध दशमी को कर्म जला॥ (झ)-सग्नि दुर रस पी था। तजिहार चार परकारा। करू उन उस तप सारा क्यों नाय गेग निस्तारा। (झड़ी,-मैं रत्नत्रय व्रत धर; चतुर्दशी फ', जगत से तिरू कर पवघाड़ा । मैं मम मे समाउं दोप न सब राड़ा। मैं सातों नत्व विचार के गाऊ महार, तजा संसार तो फिर क्या करना । निर्ने नेम विन हमें जगत् क्या करना- आसोज माग्न (अड़ी) सखि या मान कुधार, लो भूषण तार, मुझे गिरनार । की दे दो आमा । मेरे पाणिपात्र आहार की है परतिज्ञा। लो तार ये चूडामणी, रतन की कणी, सुनो सब जड़ी ग्वाल दो नी। मुझको अवश्य भरतारहिं दीक्षा लेनी॥
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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