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________________ जैन - ग्रन्थ-संग्रह | 1 -लक्ष्मीधरा छन्द । प्रातिहार्य वसु जान, वृक्ष सोहे अशोक जहाँ । पुष्पवृष्टि दिव्यध्वनि, सुर ढोरें सु चमर तहाँ ॥ छत्र तीन सिंहासन, भामण्डल छबि छाजे । बजत दुन्दुभी शब्द श्रवण, सुख हो दुख भाजे ॥१३॥ ॐ ह्रीं अष्टविधिप्रातिहार्यसंयुक्ताय श्रीजिनाय अर्घं नि०॥ चौपाई : २४३ ज्ञानावरणी करमं निवारा, ज्ञानं अनन्त तवैः जिनां धारा ॥ नाश दरशनावरणी सुरा । दरशन भयो अनन्त सु पूरा ॥१४॥ दोहा | मोह कर्मको नाशकर, पायो सुक्ख अनन्त । अन्तरायको नाशकर, बल अनन्त प्रगटन्त ॥ १५ ॥ ॐ ह्रीं अनन्तचतुष्टयं विराजमानश्रीजिनाय अघ नि० ॥ पाईता छन्द अतिशय चौतीस बखाने । वस प्रार्तहारज शुभ जाने ॥ पुन चार चतुष्टय लेवा । इन छयालिस गुण युत देवा ॥ १६ ॥ ॐ ह्रीं पट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय श्रीजिनाय अर्ध मि० ॥ श्रीसिद्धगुण पूजा "अडिल दर्शन ज्ञानान्त, अनन्ता वल लहो । सुख. 1-2 .. अन्नत विलसंत, सुसम्यक् गुण कहो ॥
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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