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________________ ४७ आत्मा एक महान प्रवासी था, आत्मधर्म पहले । जो धर्म की रक्षा करता है, वह आवाद होता है, जो धर्म की अवहेलना करता है वह बरबाद हो जाता है । आज जगत में त्रास, उपद्रव, अगाति का वातावरण फैला हुआ है, उसका कारण धर्म की अवहेलना है। धर्म में इतनी ताकत मौजूद है कि, सारी दुनिया का कल्याण कर सकता है। अगर हमने धर्म को दिल में बसा लिया है, तो वह हमारा रक्षण कर सकता है, हम शरण दे सकता है। कहा है कि : व्यसनशतगतानां क्लेशरोगातुराणां, मरणभयहतानां दुःखशोकार्दितानाम् । जगति बहुविधानां व्याकुलानां जनानां, शरणमशरणानां नित्यमेको हि धर्मः॥ -सैकडो कष्टो से दु.खी, रोगो से क्लेग पाते हुए, मरण के भय से हताग, दुःख और गोक से आर्ग, ऐसे बहुत प्रकार से व्याकुल असहाय मनुष्यो के लिए इस जगत में धर्म ही नित्य गरणभूत है । __ राजा विचार करने लगा-"यह मत्री धर्मी है, उसने बिना अपराध हजाम को क्यो मारा होगा १ हजाम तो मेरा अगरक्षक है, चिट्ठी का चाकर है । मेरे कहने से वह मत्री के पास गया । उसमें दोष है तो मेरा है। मत्री को अपनी ताकत ही दिखानी थी तो मुझ पर दिखानी थी। पर, उसने एक नौकर पर हाथ क्यों उठाया ?" गुस्सा जब पैदा होता है, उस वक्त उसका वेग बहुत तीव्र होता है। बाद में ज्यो-ज्यो समय गुजरता जाता है, वह मन्द पडता जाता है। इसीलिए अनुभवियो ने कहा है कि, जब गुस्सा आये तब परिणाम का विचार करना चाहिए, उतावली नहीं करनी चाहिए । यहाँ विचार करते हुए काफी समय निकल गया, इसलिए राजा का गुस्सा कुछ ठडा पड़ा । वह
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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