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________________ आत्मा एक महान प्रवासी ४५ घर लौटकर उसने न तो जलाया चूल्हा, न जलाया चिराग । एक टूटी हुई खाट पर अस्तव्यस्त पड़ी रही । रात को नौकरी से उसका पति घर आया। घर में अँधेग देखकर ताज्जुब करने लगा। उसने रजपृतनी की खाट के पास जाकर पूछा- 'यह क्यो ? क्या किमी ने तेरा अपमान किया है ?' रजपूतनी ने कहा-"जिसका पति पागल हो उसका कोई भी अपमान कर सकता है।" __यह ठहरी राजपूत की जाति । वह ऐसे वचन सुनकर कैसे रह जाय ? उसने हाथ में तलवार खींचकर उससे पूछा-"कोन है तेरा अपमान करनेवाला ? जल्दी नाम बता, में उसकी खबर लेता हूँ।" रजपृतनी ने कहा-"गॉव के बाहर कुएँ के पास वाले पेड के नीचे एक जोगीडा बैठा है । उसने मेरा मयंकर अपमान किया है।" वह सारी बात बता गयी । राजपूत ने कहा-"मैं उसका सर धड़ से काट कर अभी लाता हूँ | तू जरा भी चिन्ता न कर ।" राजपूत कुएं के पास पहुँचा। वहाँ पेड़ के नीचे वाबाजी के सामने टस बारह रजपूतो की मडली जमी हुई थी। इसलिए, साहस करना योग्य न लगा। वह पेड के पीछे छुपा रहा और मौके का इन्तजार करने लगा। धीरे-धीरे राजपूतो की मडली विसर्जित हो गयी और बाबाजी अकेले रह गये । इसलिए, पुन. अपना जप जपने लगे, 'अगली भी अच्छी, पिछली भी अच्छी, विचली को जूते की मार ।' ये शब्द सुनकर राजपूत विचारने लगा-"इस वक्त यहाँ कोई स्त्री नहीं है, फिर भी यह बाबा ऐसा क्यो बोल रहा है । इसमें जरूर कोई रहस्य छिपा हुआ है । मालम करना चाहिए।" तब राजपूत बाबाजी के सामने आकर, नमस्कार करके पूछने लगा-"आप क्या बोल रहे हैं ?" बाबाजी ने कहा कि यह तो मेरे समझने की बात है, लेकिन अगर तू जानना ही चाहता है तो बताता हूँ, हमारी तीन अवस्थाएँ
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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