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________________ आत्मा एक महान प्रवासी मंत्री-पद तो मुझे ही मिलेगा। पर, उसे क्या मालम कि यह मंत्री-मुद्रा उसका हाल बेहाल कर देगी। हजाम सोचने लगा-"इस मत्री-मुद्रा को जाकर अभी राजा को दे दूं या कुछ देर बाट दूं ? लाओ न इस मुद्रा को पहन कर मंत्री-पद का आनन्द तो लट लॅ।" ऐसा सोचकर राजा से पूछे बगैर ही उसने मंत्री-मुद्रा उँगली पर पहन ली। अब जो मत्री-मुद्रा पहने, सो मंत्री । इसलिए, यह बताने के लिए मैं मंत्री हो गया हूँ, वह बाजार की तरफ चल पड़ा। वहाँ पहली दुकान तंबोली की आयी। वह मत्री को देख कर दग रह गया। 'मेरी दुकान पर मत्री '—यह सोचकर उसने एक सुन्दर पान बनाकर दिया और हज्जाम में उसे मुँह ने रख लिया । वहाँ से हज्जाम दूसरी दुकानों पर गया। वहाँ भी ऐसा ही पान मिला । मान तो मत्रीमुद्रा की थी न ? अन्य दुकानदारो ने भी उसका सुन्दर सत्कार किया। हज्जाम भाई आनन्द से फूला नहीं समा रहा था ! __ अब आगे क्या हुआ सो देखो। राजाके कुछ सामन्त राज्य में मनमानी घरजानी करते रहना चाहते थे, लेकिन मंत्री की न्यायनिष्ठा के कारण उनका कुछ वग नहीं चलता था । इसलिए, वे मत्री को खत्म कर देने का मौका देखते रहते थे। इस वक्त उन्होंने चार हत्यारो को नगी तलवार लेकर मत्री का काम तमाम कर देने के लिए भेज दिया। वे नगर में दाखिल हुए। वहाँ पहली दुकान तबोली की आयी । उन्होंने तबोली से पूछा,-"यहाँ के राजा का मत्री कहाँ रहता है ? तबोली ने उगली से इशारा करके बताया कि, 'वह जा रहा है, मत्री' । तब हत्यारो ने दूसरे दुकानदार से पूछा तो उसने भी हज्जाम की तरफ इशारा कर दिया । इसलिए, हत्यारो को इत्मीनान हो गया कि 'वह जो जा रहा है, वही यहाँ के राजा का मत्री है । इसलिए, वे उसके पीछे चले, देखने वालो ने समझा कि ये तो मत्री के अगरक्षक है, इस कारण इस तरह उसके पीछे-पीछे जा रहे है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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