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________________ "८४ अात्मतन्व-विचार दूर होगी और उनका चित्त जल्दी एकाग्र होने लगेगा। इसी कारण प्राचीनकाल से उपधान पर खूब जोर दिया जाता रहा है और आन उसका इतना प्रचार है । उपधान के पीछे जो खर्च होता है वह सार्मिक की सेवा में और उत्सव का खर्च परमात्मा की भक्ति में और शासन की प्रभावना मे होता है। उस खर्च को खोटा खर्च नहीं कह सकते । नह तो धर्म का और पुण्यानुवधी पुण्य का कारण है। दिवाली पर रोशनी और सजावट करने में लोग कितना खर्च करते है ! दुकान सजाने से लक्ष्मी आ ही जाये ऐसा नियम नहीं है। पुण्य कार्य में किया गया खर्च खोटा खर्च नहीं है । पापकार्य में किया गया खर्च खोटा खर्च है। जान देनेवाले गुरु का या ज्ञान का निह्नव ( अपलाप ) नहीं करना अनिह्नवता-नामक जानाचार का पाचवा प्रकार है। जान देनेवाला गुरु अप्रसिद्ध हो या जाति-रहित हो, तो भी उसे गुरु ही कहना, अपना गौरव चढाने के लिए दूसरे किसी युगप्रधान पुरुष का नाम नहीं देना । दूसरे, जितना श्रुत पढे हो उतना ही कहना, उससे कमोबेश नहीं कहना । गुरु का निहब करने में लौकिक शास्त्रों में भी बहुत बड़ा पाप माना गया है। वे कहते है : एकानर प्रदातारं, यो गुरूं नैव मन्यते । श्वानयोनिं शतं गत्वा, चाण्डालेष्वपि जायते ।। -जो आदमी एक अक्षर भी देनेवाले को गुरु नहीं मानता, वह सौ बार कुत्ते की योनि में उत्पन्न होकर चाडाल के कुल में जन्मता है । ____व्यजनशुद्धि यह ज्ञानाचार का छठा प्रकार है। यहाँ व्यजनशुद्धि से । शास्त्रपाठ के अक्षरों की शुद्धि समझनी चाहिए । पाठ के अशुद्ध होने से, अर्थात् उसमें किसी अक्षर की हानि-वृद्धि हो या मात्रा, बिन्दी आदि मे कमी-बेगी हो जाये तो पाठ बदल जाता है और उसके अर्थ में भी बड़ा अन्तर पड जाता है, इससे ज्ञान की महा आशातना होती है और सर्वज्ञ
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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