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________________ ६७४ श्रात्मतत्व-विचार हुई है ।" दूसरे ने कहा - "यह अन्धा यह कहता है कि, यह ढाल चॉदी से मढी हुई है ।" ग्रामवासियों ने कहा—“अगर तुम्हारे लड़ने का कारण यही है तो यह करो कि तुम एक दूसरे की जगह पर आ जाओ, तो सच्ची स्थिति समझ में आ जायेगी ।" - दोनो प्रवासियो ने वैसा ही किया, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । वह ढाल तो सुनहरी भी थी और रुपहरी भी थी। इससे वे लजित हुए और अपने-अपने स्थान को चले गये । जैन- शास्त्र निरपेक्ष वचन व्यवहार को झूठा गिनते है और सापेक्ष वचन- व्यवहार को सच्चा ! 'यह ढाल सुनहरी ही है' — ऐसा कहना निरपेक्ष वचन-व्यवहार है, कारण कि उसमें ही शब्द के प्रयोग द्वारा दूसरी अपेक्षा का निषेध किया गया है। इसी प्रकार 'यह ढाल रुपहरी ही है' ऐसा कहना भी निरपेक्ष वचन- व्यवहार है, कारण कि उसमें भी दूसरी अपेक्षा का निषेध है । यहाँ यह कहा जाये कि "यह ढाल सुनहरी भी है 'और रुपहरी भी है तो यह वचन - व्यवहार सच्चा है, कारण की उसमें दूसरी अपेक्षा को स्थान दिया गया है ।" अपेक्षा का भेद बराबर समझना हो तो नयवाद एव स्यादुवाद का अव्ययन करना चाहिए। जैन- महर्षियों ने इस विषय में बहुत गहरा मंथन किया है और इस पर अनेक स्वतंत्र ग्रन्थों की रचना की है । परन्तु, आप तो पंचप्रतिक्रमण के चार प्रकरण से आगे ही नहीं बढते तो आप इस ग्रन्थ तक कैसे पहुँचें ? ज्ञान से सम्यक्त्व की प्राप्ति और चारित्र - गुणों को वृद्धि होती है एव शास्त्रोध में सहायता मिलती है । इस जगत् में अनेक शास्त्र विद्यमान हैं, पर वे अज्ञानी (अल्पज्ञानी) के किस काम के ? अज्ञानी होना एक बहुत बडा दोष है । किसी ने ठीक ही कहा है कि—
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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