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________________ आत्मतत्व- विचार जिस श्रद्धा से अरिहंत और सिद्ध का देव के रूप में, पंच महाव्रतधारी को गुरु के रूप मे और वीतरागप्रणीत मार्ग को धर्म के रूप में आलबन बनाया जाता है; उसकी यथार्थता के बारे मे गंका उठाने से सम्यक्त्व मलिन होता है । દૃષ્ટ सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पाने के बाद, अन्य किसी मत की आकाक्षा नहीं रखनी चाहिए । ताजा आम्रफल मिलने के बाद अन्य फल की इच्छा कौन करेगा ? जनमत की श्रेष्ठता के विषय में शास्त्रों में कहा है कि निव्वाणमग्गे वरजाण कप्पं । पणासिया से सकुवाइदप्पं ॥ मयंजिणाणं सरणं' चुहाणं । नमामि निच्चं तिजगप्पहाणं ॥ - श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित मत निर्वाण के सुन्दर वाहन के समान है। यानी जल्दी मोक्ष दिलाता है । उसमे कुवादियों के दर्प को, अभिमान को, सर्वथा नष्ट कर दिया है । श्रीजिनशासन अनेकान्तमय, स्याद्वादमय है । उसके सामने किसी कुवादी की दलील या युक्ति नहीं चलती और वह अवश्य हार जाता है; इसीलिए उसे कुवादियों के धर्म का सर्वथा नाश कर डालनेवाला बताया है । वह पडितों, विद्वानों के भी शरण लेने लायक है । इन्द्रभूतिगौतम, आदि धुरन्धर विद्वान थे, फिर भी उन्होंने इस जिनमत का आश्रय लिया था; कारण कि उनकी समस्त शकाओं का निवारण इस मत के सुनने से ही हुआ था । ऐसे तीनों जगत् में श्रेष्ठ मत को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ । धर्म के फल में सदेह रखना या साधु-साध्वी के मलिन गात्र वस्त्र को देखकर दुगछा करना विचिकित्सा है । उससे भी सम्यक्त्व मलिन होता है ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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