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________________ सम्यक्त्व ६३३ मी याद आयी कि, वे अपना निर्वाह किस तरह कर रहे होंगे ! अब तक उनकी तरफ से बेखबर रहने के कारण उसे बड़ी ही लजा हुई। . सुबह होने पर वह उज्ज्वल वस्त्राभूषण धारण कर अपने खास आदमियों को साथ लेकर आचार्य-श्री के आश्रय पर आया । वहाँ उसने समा, नम्रता, सरलता और सन्तोष की मूर्तिस्वरूप आचार्य के दर्शन किये। उनके पास अन्य मुनि बैठे हुए थे। उनमे से कोई ध्यानमग्न थे, किन्हीं ने मौन धारण किया हुआ था, किन्हीं ने कायोत्सर्ग का अवलम्बन ले रखा या, कोई स्वाध्याय में लीन था, तो कोई भूमिप्रमार्जन आदि क्रियाओं मे लगे हुए था। नान-ध्यान और जप-तप के इस पवित्र वातावरण का धनसार्थवाह के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा । फिर, उसने आचार्य श्री को वन्दन किया तथा दूसरे मुनियों को भी नमस्कार किया और अन्त में आचार्य श्री के चरणों के समीप बैठकर गद्गद् कठ से कहा-'हे प्रभो ! मेरा अपराध क्षमा करो। मैंने आपकी अत्यन्त अवज्ञा की है और कुछ भी उचित सार-संभाल नहीं रखी । अपने इस प्रमाद के कारण मैं अत्यन्त लज्जित हूँ और पश्चात्ताप करता हूँ!" उत्तर मे आचार्य-श्री ने कहा-'हे महानुभाव ! मार्ग में हिंसक 'पशुओं से और चोर-चखार से तुमने हमारी रक्षा की है, इसलिए हमारा सब प्रकार से सत्कार हुआ है। दूसरे, तुम्हारे संघ के लोग हमें योग्य अन्नपान आदि देते रहे हैं, इसलिए हमें कोई कष्ट नहीं हुआ; इसलिए तुम जरा भी खेद न करो।" ___ सार्थवाह ने कहा-"सत्पुरुष तो हमेशा गुणों को ही देखते हैं; इसलिए आप मेरे गुणों को ही देखते हैं; अपराधों को नहीं ! हे भगवन् ! अब आप प्रसन्न होकर साधुओं को मेरे साथ भिक्षा लेने भेजें; ताकि मै इच्छानुसार अन्न-पान देकर कृतार्थ होऊँ ।” आचार्य ने कहा-'वर्तमान योग ।" तब सार्थवाह अपने निवासस्थान पर आया । दो साधु भी उनके यहाँ भिक्षा लेने के लिए आये। पर, दैवयोग
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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