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________________ सम्यक्त्व ६२६ फिर ये मित्र एक दूसरे के सहकार से दीर्घकाल तक खाते पीते मोज करते रहे ! ऐसे मित्र हो सन्मित्र कहे जा सकते है । लेकिन, सम्यक्त्व की मैत्री तो इनसे भी कहीं अधिक श्रेष्ठ है, कारण कि वह इस अपार दुःखपूर्ण ससार में परिभ्रमण करते हुए जीव के लिए उससे बाहर निकलने का मार्ग सरल कर देता है । तात्पर्य यह कि, सन्मित्र से बढकर कोई श्रेष्ठ मित्र नहीं है । सगा सम्बन्धी, सगोत्री, नातेदार बन्धु कहलाता है । वह अच्छे-बुरे चक्त पर साथ देता है और उससे आदमी को बड़ा आश्वासन मिलता है । यद्यपि आजकल तो फलयुग के प्रताप से काका-मामा कहने भर के लिए रह गये हैं और पास में चार पैसे हो तो ही भाव पूछते हैं। पास में कुछ न हो तो सगी बहन भी किसी भाव नहीं पूछती । पिता को भी पुत्र तभी प्यारा लगता है कि, चार पैसे कमाकर लाता हो । परन्तु, सम्यक्त्व का 'सम्बन्ध ऐसा नहीं है । इसके साथ सम्बन्ध कायम हुआ कि, वह आपकी निरन्तर सार-सँभाल रखता है और इस प्रकार सहायता करता रहता है कि, आपकी उन्नति होती रहे । इसीलिए, 'शास्त्रकार भगवंतो ने श्र ेष्ठ चन्धु से उसकी उपमा दी है । अब रही लाभ की बात ! आपको अच्छे भोजन की इच्छा हो और यह मिल जाये तो आप खुश होते हैं, आपको सुन्दर वस्त्राभूषण की इच्छा हो और वह मिल जाये तो आप खुश होते हैं, अथवा आपको लक्ष्मी और अधिकार की प्रबल इच्छा हो और वह मिल जाये तो आप अत्यन्त खुश होते हैं, लेकिन ये सब लाभ सम्यक्त्व के लाभ के आगे किसी बिसात में नहीं हैं । चतुर्दशपूर्वधर श्री भद्रबाहु स्वामी 'उवसग्गहरं स्तोत्र' मे कहते हैं: f तुह सम्मते लद्धे, चिंतामणिकप्पपायवन्भहिए । परावंति श्रविग्घेणं, जीवा श्रयरामरं ठाण ॥
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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