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________________ ५६२ आत्मतत्व- विचार पन्द्रह सौ वर्ष के अन्दर स्थापित हुए हैं, और सिक्ख, आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज आदि पाँच सौ से सौ वर्ष के अन्दर स्थापित हुए हैं । 'जूना सो सोना ( ओल्ड इज गोल्ड ) ' - इस न्याय को लागू करें तो जैनधर्म सर्वश्रेष्ठ ठहरेगा, क्योंकि वह प्राचीनतम धर्म है । कुछ लोग समझते हैं कि, जैनधर्म श्री महावीर प्रभु से प्रारम्भ हुआ, लेकिन यह ठीक नहीं है । उनसे पहले भी जैनधर्म के तेईस तीर्थकर हो चुके थे । कुछ लोग यह समझते हैं कि, श्री ऋषभदेव से धर्म का प्रारम्भ हुआ, लेकिन यह बात भी ठीक नहीं है । इस अवसर्पिणी - काल की अपेक्षा से हम श्री ऋषभदेव भगवान् को जैन-धर्म के सस्थापक अर्थात् युग आदि देव कह सकते है, पर, कालचक्र की अपेक्षा से तो इस लोक मे ऐसी कितनी ही अवसर्पिणियाँ और उत्सर्पिणियाँ व्यतीत हो गयी हैं। और, उस हर अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी काल में तीर्थंकर हुए हैं और उन्होंने जैनधर्मं का प्रवर्तन किया है; इसलिए हम कहते हैं कि, जैनधर्म अनादि है । कुछ लोग कहते हैं कि 'प्राचीनतम् श्रेष्ठतम भी है, यह मानना ठीक नहीं है ।' पर, कोई चीज बहुत पुरानी क्यों हुई, इस पर भी विचार करना चाहिए | एक पेढी दो सौ वर्ष से काम कर रही हो तो बाजार में उसकी साख अधिक होती है और लोग निर्द्वन्द्व होकर उसके साथ लेन-देन का व्यवहार करते हैं । नयी पेढी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता । यह तो सिर्फ दलील के लिए कहा गया, वैसे जैन-धर्म तो गुण की कसौटी में भी सबसे आगे रहनेवाला है । कुछ कहते हैं कि, 'प्राचीनता को लक्ष्य में लेते है तो सख्या को भी लीजिये और जिसकी सख्या सत्र-से-ज्यादा हो उसे श्रेय मानिये । वह धर्म श्रेष्ठ न हो तो उसके अनुयायी अधिक कैसे हों ?' लेकिन, हम पहले बतला चुके हैं कि, सख्या से श्रेष्ठता की कसौटी करना अनुचित है । किसी दूकान पर ग्राहक अधिक आने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता । वह दूकान न्याय
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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