SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 674
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ आत्मतत्व-विचार सिनेमा मे, रगड़े-झगड़े में और हारी-बीमारी में जो वक्त गॅवाते हैं, उसे उधार की तरफ समझें । और, साधु-सतों के समागम में, धर्मोपदेश सुनने में, स्वाध्याय करने में, प्रभुभक्ति में, परोपकार करने में, धर्मध्यान में जो समय लगायें उसे जमा की ओर समझें । इनका ठीक-ठीक आँकडे निकालें तो वास्तविक स्थिति का आपको ही ज्ञान हो जायगा। जिसकी रकम घटती जाती है और देना बढ़ता जाता है वह अन्त में दिवालिया हो जाता है और उसकी आबरू नीलाम हो जाती है। अगर आपका कारबार दिवालिया हो तो स्थिति अभी से संभालना ही ठीक है ! शास्त्रकार भगवत तो स्पष्ट कहते हैं कि सामाइय-पोसह-संठिबास्स जीवस्स जाह जो कालो। . सो सफलो बोधब्बो, लेसो संसारफलहेऊ ॥ -सामायिक और पौषध में नानेवाले समय को सफल समझिये और शेष को ससारफल का हेतु जानिये अर्थात् संसार बढ़ानेवाला समझना ! ___ यहाँ सामयिक, पौषध के साथ उपलक्षण से प्रभु- जा आदि सत्र धार्मिक क्रियाएँ समझनी चाहिएँ । धार्मिक क्रियाओं में जानेवाला समय कर्म को घटानेवाला, कर्म को तोड़नेवाला होने से सफल गिना जाता है और शेष समय जो व्यवहार के कामो में जाता है, वह कर्म को लानेवाला, कर्म को बाँधनेवाला होने से विफल गिना जाता है, और संसार को बढानेवाला गिना जाता है। हमने इस व्याख्यानमाला के प्रारम्भ में ही 'जिणवयणे अणुस्ता' १. सामाइय-पोसह- सठिअस्स, जीवस्स, जाइ जो कालो। सो सफलो बोधन्चो, सेसो पुण जाण विफलति ।। ऐमा पाठ भी मिलता है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy