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________________ सैंतीसवाँ व्याख्यान धर्म का आराधन [१] महानुभावो! कर्म भी ढाई अक्षर का और धर्म भी ढाई अक्षर का; पर इन दाई अक्षर के इन दो शब्दो के काम में कितना अन्तर है! कर्म आत्मा को नीचे गिराता है, उसे सताता है और भयंकर भव-अटवी मे बारंबार भ्रमण कराकर विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है; जबकि धर्म आत्मा को ऊँचा चढाता है, अत्यन्त आनन्द देता है और अक्षय-अनन्त-अपार सुखमय सिद्धिसदन की सैर कराता है ! कर्म और धर्म के उत्तर के डेढ़ अक्षर तो समान ही हैं। अन्तरमात्र प्रारम्भ के एक अक्षर में है। पर, यह एक अन्तर दोनों के सम्पूर्ण रूप को ही बदल देता है। 'भक्षण' और 'रक्षण' तथा 'मरण' और 'शरण' मे मात्र प्रथम अक्षर के अन्तर से उनके स्वरूप में कितना अन्तर पड़ जाता है ? एक में मानव का भक्षग और नाश है और दूसरे में उसका रक्षण और बचाव है । एक मे मनुष्य का मरण अर्थात् इस जीवन का अन्त है तो दूसरे में शरण अथवा जीवन की सुरक्षा है। दो मनुष्य की एक समान पीठ होने पर भी उनकी आकृति में भेद सम्भव है और उससे उनके व्यक्तित्व मे ही अन्तर आ जायेगा । कर्म और धर्म की भी बात ऐसी ही है। कर्म को धर्म नहीं सुहाता और धर्म को कर्म नहीं सुहाता । इसका कारण यह है कि, दोनों की दिशा ही पूर्णतः भिन्न है, उनका मार्ग और
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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