SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 633
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म की पहिचान ५४७ इन सब बातों को धर्म मानने जाये तो बात कहाँ पहुँचेगी इसका विचार कीजिये ! 'धर्म' को 'नीति' कहने से भी धर्म का सच्चा मर्म प्रकाश में नहीं आता, कारण कि देशकालानुसार नीति अनेक प्रकार की होती है और उसमें अच्छी और बुरी दोनो बातो का समावेश होता है। उदाहरण के लिए, नीति-विशारदों ने साम, दाम, दंड और भेद इन चार प्रकार की नीति मानी है। इनमे साम अर्थात् सिखावन देना अच्छी बात है। अगर कोई सीख देने से ही अन्याय, अनीति, दुराचार या, अधर्म का सेवन छोड़ दे, तो वाछनीय है । परन्तु, दाम यानी पैसा देना, लालच-रिशवत देना और उससे स्वार्थ का काम करा लेना, अच्छी बात नहीं है । दंड देना, नाश करना भी खराब ही है । उसी प्रकार मेद अर्थात् प्रपच खेलकर विरुद्ध पक्ष में फूट डलवाना और उसे विनाश के मार्ग पर ले जाना भी अच्छी बात नहीं है। इस प्रकार 'धर्म' दाम, दह और भेद भी नहीं है। नीति का अर्थ केवल व्यवहार-शुद्धि किया जाये, तो यह भी पूर्ण परिभाषा नहीं है। उसमे धर्म का अश अवश्य है; परन्तु धर्म का वास्तविक अर्थ सामने नहीं आता। 'धर्म माने सदाचार' यह व्याख्या ऐसी है, जैसे भारतवर्ष को वम्बई कहना। भारतवर्ष केवल बम्बई मात्र ही नहीं है । उसमें और भी बहुत से नगर, पर्वत, नदी, सरोवर अदि हैं। उसी प्रकार धर्म मे भी सदाचार के बाद श्रद्धा, जान, भावना आदि अनेक अन्य वस्तुएँ सम्मिलित हैं। . दोयम, सदाचार का अर्थ भी विभिन्न लोग विभिन्न प्रकार से करते हैं। कुछ लोग प्रातः-साय नहाना-धोना, किसी को न छूना, इसे ही सदाचार कहते हैं; तो कुछ लोग ब्राह्मणों को जिमाना, दक्षिणा देना, पीपल को पानी देना, गाय को घास खिलाना, भगत-भिखारी को भोजन कराने को सदाचार कहते हैं । इसलिए 'धर्म' को 'सदाचार' कहना भी ठीक नहीं है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy