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________________ श्रात्मा देह श्रादि से भिन्न है २७ मैं देह नहीं हूँ, आत्मा हूँ महानुभावो ! 'मैं' का मतलब मगनलाल, छगनलाल, पानाचन्द या पोपटभाई के नाम से पुकारी जानेवाली 'देव' नहीं है; बल्कि उसने विराजमान चेतन्य लक्षणवाला 'आत्मा' है । जैसे महल में रहनेवाला और महल एक नहीं है, उसी तरह देह में रहनेवाला और देह एक नहीं है । तलवार को म्यान में रखी हुई देखकर कोई तलवार और भ्यान को एक ही समझ ले, तो हम उसे क्या कहेंगे ? तलवार और स्थान दो भिन्न वस्तुएँ है, यह तो एक छोटा बालक भी जानता है । देहात्मवादियों के तर्क यह होते हुए भी बहुत-से लोग देह को ही आत्मा मानना चाहते है और उनके लिए अनेक तर्क पेश करते है । यहाँ उनकी समीक्षा की जायेगी । वे कहते हैं कि, 'पृथ्वी', 'जय', 'वायु', 'अग्नि' और 'आकाश' इन पाँच भूतो' के सयोग से ही चेतन्यशक्ति उत्पन्न होती है और उसके द्वारा इस शरीर का काम चलता है । अर्थात् चैतन्य की उत्पत्ति का स्थान देह है, और चैतन्यवाली वस्तु को ही 'आत्मा' कहते हैं, तो वह देह से भिन्न नहीं है । पर वैज्ञानिक लोग पचभूतो की जगह दूसरे पदार्थों का नाम लेते है, उनके कहने का मतलब तो यही है कि, 'जड' पदार्थों के सयोग से 'चैतन्य' की उत्पत्ति होती है और उसी से शरीर की सब क्रियाऍ चलती है । 'इस शरीर का काम चन्द्र क्यो हो जाता है ' यह पूछने पर वे कहते है कि, 'जब इन पाँच भूतो में से किसी का सयोग सर्वथा टूट जाता है, १ कुछ लोग भूतों की संख्या चार मानते हैं । उनके मतानुसार आकाश भूत नहीं है 1
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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