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________________ धर्म की शक्ति ५४३ चड़ी कुठगी हो गयी । स्वयं द्रव्य लिया नहीं है, फिर भी चोर ठहरा दिया गया ! इसका उसे बड़ा दुःख होने लगा । उसने उस वृक्ष के आसपास कुछ सूखी घास इकट्ठी करके आग लगा दी । उसमें और भी सूखी लकडियाँ डाल दीं । इससे सारा पेड़ धू-धू करके जलने लगा । उस समय उसमें से भयकर रूप से चीखता हुआ एक आदमी अधजली हालत में निकला | राज्याधिकारियों ने उसे घेर लिया और पूछने लगे - " तू कौन है ? सचसच बता ।" उस अर्धदग्ध आदमी ने लिथड़ती वाणी में कहा - "मेरे दुष्ट पुत्र ने मेरी यह दशा की है ।" और वह लड़खड़ाकर जमीन पर गिर पड़ा । उसके सौ के सौ वर्ष वहीं पूरे हो गये । राज्याधिकारी समझ गये कि धर्मबुद्धि को दोषी ठहराने के लिए ही पापबुद्धि ने यह पड्यंत्र रचा था और अपने पिता को वहाँ छिपाकर वैसे वचन कहलवाये । उन्होंने पापबुद्धि को अपराधी घोषित किया, उसके घर की तलाशी ली और धर्मबुद्धि के धन को वापस दिलाया । पापबुद्धि पर विश्वासघात, झूठ, धोकाजनी, झूठी गवाही दिलाने आदि जुर्मों का दोषी ठहराकर फाँसी की सजा दी । पाप अन्याय-अधर्म से धन पाने की लालसा का क्या परिणाम आया यह देखिये ! धन मिला नहीं, पिता जलकर मर गया और खुद फॉसी पर लटकना पड़ा । ऐसे उदाहरण आज भी देखने में आते हैं । अन्याय-अनीति अधर्म का आचरण करके इकट्ठा किया हुआ धन पारे की तरह फूट निकलता है और उसे प्राप्त करनेवाले को सुख-शांति का अनुभव नहीं होने देता । अगर वह धन दूसरे को दिया जाये तो उसकी हालत भी बुरी हो जाती है। एक सन्यासी के हाथ मे अन्याय से कमाई हुई अगर्फी आने पर उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी और उसे वेश्यागमन का विचार आया। ऐसे अनेक उदाहरण देखते - जानते हुए भी मनुष्यों की बुद्धि न सुधरती है न धर्म में स्थिर होती है, यह कितनी शोचनीय बात है !
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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