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________________ धर्म की श्रावश्यकता ११८ मुनि ने कहा- "जो ठीक लगे सो कर इसनें मुझसे पूछत क्या है ?" नदिषेण मुनि ने उसे अपने कन्धे पर बिठाया और धीमे-धीमे चलन लगे । निरन्तर तपस्या करने से नदिषेण मुनि का शरीर दुर्बल हो गया था इसलिए वे धीरे-धीरे चलते थे और देख-देखकर कदम रखते थे । लेकिन, उस मुनि को तो परीक्षा ही करनी थी; इसलिए उसने अपना वजन छोरेधीरे बढ़ाना शुरू कर दिया । देव जैसे चाहे जैसा आकार धारण क सकते हैं । वैसे ही धारण किये हुए वजन को भी मनुष्य हठयोग से ऐसी सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं । गरिमालब्धि है, वह इसी प्रकार की है । घटा-बढ़ा सकते हैं । अष्ट महासिद्धि मं े वजन बढने से नटिपेण मुनि काँपने और लड़खड़ाने लगे । उस समा उस मुनि ने कहा - " अरे अधम ! तू यह क्या कर रहा है ? तूने तो मेरे सारे शरीर को हचमचा दिया। सेवा करने का तेरा ढग अच्छा है 1" वचन बड़े कर्कश थे, पर नदिपेण मुनि क्षुभित नहीं हुए । उन्होंने पूर्ववत् शाति से कहा - "मेरे इस प्रकार चलने से आपको दुःख हुआ हो तो क्षमा करना । अत्र मैं ठीक तरह चलूँगा ।" और सुनि को रास्ते में उस मुनि ने कंधे पर टट्टी कर दी । उसकी दुर्गंध अस थी । पर, नदिपेण मुनि अविचलित भाव से चलते रहे किसी तरह की तकलीफ न हो इसका ध्यान रखते रहे। रास्ते में चलतेचलते नदिषेण मुनि सोचने जाते थे कि इन मुनि का रोग मिटाने के लिए क्या उपाय किया जाये ? वे अपनी वसति पर आये । देव ने अवधिज्ञान से देखा और बा लिया कि, यह मुनि अपनी प्रतिज्ञा में अटल है । इसलिए, अपनी माया समेट ली और विष्ठा और दोनों साधु अदृश्य हो गये, तुरन्त ही वह दे अपना स्वरूप प्रकट करके, मुनि को तीन प्रदक्षिणा देकर, नमस्कारपूर्वक
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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