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________________ श्रात्मा देह श्रादि से भिन्न है २३ मम्वरदत्त की स्थिति भी लगभग ऐसी ही थी, वह मुबह से ग्राम तक धन्धा - रोजगार में लगा रहता और कुटुम्ब का पालन करता । उसके कुटुम्ब में मॉस-भक्षण भी होता था और मदिरा भी पी जाती थी । जहाँ धर्म के संस्कार न हो, वहाँ भव्यामध्य का विवेक कहाँ से हो ! आज मध्या भक्ष्य का विवेक घट गया है, इसका कारण यह है कि 'धर्म' के संस्कार नहीं हैं । मुन तो समझते ही है कि मामभक्षण करनेवाले और मदिरापान करने वाले की नरकगति होती है और उसे असह्य यातनाएँ भोगनी पड़ती है । एक बार महेश्वरदत्त का पिता बीमार पडा । बहुत कुछ कोशिश की जाने पर भी अच्छा नहीं हुआ । औषध भी आयुम्न हो तभी लगती है । अपना अन्त समय निकट देखकर वह चिन्ता करने लगा कि, "मेरी पत्नी का क्या होगा ?" पिता को चैन नहीं पड रहा है, वडा आकुल-व्याकुल हो रहा है, यह देखकर महेश्वरदत्त ने कहा – “पिताजी । आपको कोई इच्छा हो तो बताइये; मैं उसे पूरी कर दूँ । आप किसी तरह की चिन्ता न करे ।" तब पिता ने कहा - "बेटा तू होशियार है ओर कार्यकुशल है, इसलिए कुटुम्ब का पालन-पोपण अच्छी तरह करेगा ही, लेकिन अब जमाना नाजुक आ गया है, इसलिए खर्च करने में सावधानी रखना और अपनी भैमो की सार-सॅभाल बराबर रखना । मैंने उन्हे बडी ममता से पाला है । दूसरी एक बात यह है कि अपने कुल में श्राद्ध के दिन एक पाड़े का बलिदान दिया जाता है, यह न भूलना ।” 1 इतना कहकर पिता मर गया । अन्त समय प्राणी की जैसी मनि होती है वैसी गति होती है, इसलिए मरने के बाद वह अपनी ही एक भैंस के पेट से पाड़े के रूप में पैदा हुआ । कुछ दिनो बाद महेश्वर दत्त की माता भी बीमार पड़ी और वह भी 'मेरा घर', 'मेरा कुटुम्ब', 'मेरी लाज', 'मेरा व्यवहार', इस तरह 'मेरामेरा' करती हुई मर गयी। उसने कुतिया का जन्म लिया और महेश्वरदत्त के घर के आसपास रहने लगी ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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