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________________ ૨ श्रात्मतत्व-विचार कर्म की दीर्घ, लम्बो, स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा न्यून, न्यूनतर, न्यूनतम करना स्थितिघात कहलाता है । कर्म के तीव्र रस को अपवर्तनाकरण द्वारा मंद, मदतर, मदतम बनाना रसघात कहलाता है । कम समय में अधिक कर्म- प्रदेश भोगे जायें ऐसी स्थिति उत्पन्न करना गुणश्रेणी कहलाता है । यह गुणश्रेणि दो प्रकार की है—उपशमश्रेणि । और क्षपकश्रेणि । उपशमश्रेणि चढनेवाली आत्मा मोहनीयकर्म की प्रकृतियों का उपशमन करता है; इसलिए वह उपशमक कहलाता है । क्षपकश्रेणि चढ़नेवाला आत्मा मोहनीयकर्म की प्रकृतियों का क्षय करता है, इसलिए वह क्षपक कहलाता है । ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह है । वहाँ औपशमिक वीतराग दशा है । उपशमश्रेणि वहाँ पहुॅचानेवाली है । बारहवाँ गुणस्थान क्षीणमोह यानी क्षायिक भाव से वीतराग दशा का है । वहाँ क्षपकश्रेणी द्वारा पहुँचा जाता है । क्षपकश्रेणि उच्चतर और श्रेष्ठतर है, इसलिए उसकी अधिक प्रशंसा होती है । यह अटल नियम है कि, क्षपण के बगैर किसी जीव को केवलज्ञान नहीं हो सकता । बॅधी हुई शुभ प्रकृति में अशुभ प्रकृति का दलिया विशुद्धतापूर्वक बहुत बड़ी संख्या में डालना गुणसंक्रमण है । यह याद रखना चाहिए कि, सक्रमक सजातीय प्रकृतियों का ही होता है, विजातीय प्रकृतियों का नहीं | बाद के गुगस्थानों में मात्र जघन्य स्थिति का कर्मबन्ध करने की योग्यता प्राप्त करना अपूर्व स्थितिबन्ध है । इस गुणस्थान को कुछ लोग निवृत्ति और कुछ लोग निवृत्तिवादर कहते हैं। इसका कारण यह है कि, इस गुणस्थान में समकाल में जिन आत्माओं का प्रवेश हुआ हो, उनके अध्यवसायों में निवृत्ति यानी परस्पर फेरफार होता है । इन अध्यवसाय के भेदों की संख्या असख्यात है । जो निवृत्ति के बाद 'चादर' शब्द लगाते हैं, वे यहाँ स्थूल कपायो की विद्यमानता दर्शाने के लिए लगाते है ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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