SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 553
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान ४७१ (७) भोगोपभोग-परिमाण त। . (८) अनर्थदड-विरमण-व्रत । (६) सामायिक-व्रत । (१०) देशावकाशिक व्रत । (११) पोषध-व्रत। (१२) अतिथि सविभाग व्रत । इनमे से पहले पाँच अणुव्रत कहलाते हैं, बाद के तीन गुणव्रत कहलाते हैं और अन्तिम चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं। पहले पाँच को 'अणु' व्रत इसलिए कहते हैं कि, वे महाव्रतों की अपेक्षा (अणु) छोटे हैं, बाद के तीन को गुणव्रत कहने का कारण यह है कि, वे पॉच अणुव्रतों से उत्पन्न होनेवाले चारित्रगुण की पुष्टि करनेवाले है, और अन्तिम चार को शिक्षाव्रत कहने का कारण यह है कि, वे श्रावक को सर्वविरति की अमुक अश में शिक्षा अथवा तालीम देते हैं। यह अविरति और सर्वविरति के बीच की स्थिति है, इसलिए इसे 'मध्यम मार्ग' भी कह सकते हैं। इसे अत्यन्त व्यावहारिक - माना जाता है । इसका अनुसरण करने से आत्मा क्रमशः आगे उन्नति कर सकती है और अन्ततः अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ___ यह गुणस्थान संजी तिर्यंच और मनुष्य दोनों को हो सकता हैअर्थात् मनुष्य की तरह सजी तिर्यच भी इन व्रत आदि के अधिकारी हैं। इस गुणस्थान की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्व । करोड़ यानी एक आठ-वर्ष-कम एक करोड़ पूर्व है। __ १ देशविरति गुणस्थान में प्रार्तव्यान और रौद्रध्यान मद होते हैं और श्रावक के पट कर्म, ११ प्रतिमा और १२ व्रत के पालन से उत्पन्न मध्यम प्रकार का धर्मध्यान होता है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy