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________________ ४३६ आत्मतत्व-विचार जायगी।" कुवेरदत्त ने कहा-'आपका विचार ठीक है, पर अभी तो मै परदेश जाकर धन कमाना चाहता हूँ। वहाँ से लौटने पर दूसरी शादी करूँगा ! कुबेरदत्त के इस विचार से माता-पिता सहमत हो गये। कुबेरदत्त एक शुभ दिन बहुत-सा किराना लेकर परदेश को चल पड़ा। वहाँ व्यापार में बहुत सा धन कमाया और घूमता हुआ मथुरा-नगरी में आया। वहाँ अनेक लोगो को चतुर स्त्रियो के साथ विलास करते देखकर उसे भी विलास की सूझी । जवानी को दिवानी कहा गया है, वह गलत नहीं है । कुबेरदत्त मथुरा के रूपबाजार की ओर निकल पड़ा और कुबेरसेना वेश्या के यहाँ जा पहुंचा। कुवेरसेना अधेड़ उम्र की हो गयी थी; मगर उसने अपनी जवानी सँभाल कर बना रखी थी, इसलिए उसके रूप से आकृष्ट हो कर अनेक युवक वहाँ आते थे। मुंहमांगा धन देकर कुबेरदत्त कुबेरसेना के यहाँ रहने लगा, इसलिए कुवेरसेना अन्य पुरुषो को छोड़कर उसके साथ प्रेम-मुहन्वत करने लगी। इस तरह वह एक पुत्र की माता हो गयी। इधर कुबेरदत्ता ससार को असार जानकर प्रव्रजित हो गयी और घोर सयम और तप से उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो गया। उस अवधिजान के योग से उसने मथुरा नगरी देखी, अपनी माता कुबेरसेना को देखा और उसे कुबेरदत्त से प्राप्त हुए पुत्र को भी देखा। इससे उसे अत्यन्त विपाट हुआ। वह अपनी माता और भाई का उद्धार करने के लिए कुछ साध्वियों के साथ मथुरानगरी मे कुवेरसेना के आँगन में आकर खड़ी हो गयी। . अपने अपवित्र ऑगन में एक युवती आर्या को साध्वियों के साथ खड़ी देखकर पहले तो कुवेरसेना सकुचित हुई, फिर हाथ जोड़कर बोली"हे महासती ! मेरी कोई भी वस्तु स्वीकार कर मुझ पर अनुग्रह करो।"
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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