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________________ उन्तीसवाँ व्याख्यान आठ करण महानुभावो! कर्म क्या है ? उसकी शक्ति कितनी है ? उसका बन्ध किस प्रकार होता है ? कितने प्रकार से होता है ? उसके सामान्य और विशेष कारण क्या हैं ? आदि बातें आपको अनेक युक्ति उदाहरणपूर्वक समझायी जा चुकी हैं और आप कर्म के स्वरूप को भलीभॉति जान गये हैं। परन्तु , कर्म का विषय अत्यन्त विशाल है। अब भी उसके बारे में बहुत-सी बातें जानने को शेष हैं, इसलिए उस विषय का कुछ और भी विस्तार किया जाता है। कार्माणवर्गणाओं का आत्मा के साथ सम्बन्ध हो जाने, पर वे 'कर्म' की सज्ञा पाती हैं और हम कहते हैं कि-'कर्म बंधे ।', 'कर्म का बन्ध हुआ 11' कर्मबन्ध के होते समय ही यह निश्चित हो जाता है कि, यह कर्म कैसे स्वभाव का होगा, कितने समय तक रहेगा, कितने रसपूर्वक और कितने परिमाण में उदय में आयेगा। अगर निकाचित कर्मबन्ध' हुआ हो, तो उसमें कुछ अन्तर नहीं पड़ता, वह ज्यो-का-त्यों उदय में आकर अपना फल देता है। लेकिन, जो कर्म अनिकाचित है, उसके उदय में आने से पहले फेरफार हो सकते है। यह करण का विषय यही समझाने के लिए लिया गया है। यहाँ यह प्रश्न होगा कि, 'फिर क्यों कहा जाता है कि कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं है ?” परन्तु, इस कथन को मुख्यतः निकाचित कर्मबन्ध १ योगदर्शन में इसे नियतविपाकी कर्म कहा गया है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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