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________________ ४३० श्रात्मतत्व-विचार शुद्ध सम्यक्त्वी बनें, तो वैमानिक - देव का आयुष्य बाँधे । अगर, सम्यक्त्व में कोई मलिनता रहेगी, तो नीची कोटि के देव, ज्योतिष्क- देव, भुवनपतिदेव आदि देवों का आयुष्य बॅधेगा । जो तडपते- तड़पते या अपघात करके मरते हैं, वे व्यतर- जाति के देव होते हैं । मिथ्यादृष्टि आत्मा भी शुभ परिणामवाला हो तो देवगति तक पहुँच सकता है और श्रावक धर्म का पालन आत्मा को बारहवें स्वर्ग तक पहुँचाता है । साधु की द्रव्यक्रिया आत्मा को नव ग्रैवेयक तक पहुँचाती है । श्रावक से साधु की क्रिया उच्च गिनी जाती है। उससे भी ऊपर जाना हो तो भावचारित्र होना चाहिए । साधु की भावना वाला ससारी वेश में भी केवलज्ञान पाता है, जबकि संसारी भावनावाला साधु के वेश में भी केवलज्ञान नहीं पाता । यह तो निश्चित है कि, धर्मक्रिया करनेवाला, धर्म की भावना रखनेवाला आयुष्य बाँधता है, तो देवगति का ही बाँधता है । आयुष्य बाँधते समय शुभ परिणाम होने चाहिएँ । नामकर्म का बन्ध करनेवाले विशेष कारण आत्मा जब सरल हो, निष्कपट हो, गर्विष्ट न हो, नम्र भाववाला हो, तब शुभ नामकर्म बाँधता है और उससे शुभ सहनन, शुभ संस्थान, शुभ वर्ण रस-गंध-स्पर्श, अच्छा स्वर आदि पाता है और लोगों से मानपान पाता है । इसके विपरीत यदि वह कपटी, गर्विष्ट, निष्ठुर आदि हो, तो अशुभ नामकर्म बाँधता है और उससे अशुभ सहनन, अशुभ संस्थान, अशुभ वर्ण, रस, गंध और स्पर्श, अशुभ स्वर आदि पाता है और अपकीर्ति प्राप्त करता है । गोत्रकर्म-बन्धन के विशेष कारण दूसरे के गुणो को देखनेवाला, दूसरे के गुणों की अनुमोदना करने
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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