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________________ १४ श्रात्मतत्व-विचार इसलिए मुझे मौत की सजा मिली है । अतः तुम भूलकर भी पापाचरण मं न पडना । तो, उस पुरुष के ऐसे अनुनय-विनयपूर्ण वचन सुनकर क्या तू उसे सजा देने में कुछ देर रुक जायगा " राजा - "हे भन्ते ! ऐसा न हो सकेगा । वह कामुक मेरा अपराधी है । इसलिए जरा भी ढील किये बिना मे उसे सूली पर चढा दूँगा ।" आचार्य – “हे राजन् । तेरे टाटा की भी हालत ऐसी ही है ? वह परतन्त्र होकर नरक के दुःख भोग रहा है, इसलिए तुझसे कहने के लिए कैसे आ सकता है ? नरक में पहुॅचा हुआ नया अपराधी मनुष्य-लोक में आना तो चाहता है, पर वह चार कारणो से आ नहीं पाता । प्रथम तो नरक की भयकर वेदना उसे विह्वल कर डालती है, जिससे कि वह किंकर्तव्यविमूढ बन जाता है। दूसरे, नरक के कठोर रक्षक उसे घड़ी भर के लिए भी बन्धनमुक्त नहीं करते। तीसरे, उसके वेदनीय कर्म का भोग पूरा भोगा हुआ नहीं होता और चौथे, उसका आयुष्य पूरा किया हुआ नहीं होता । इसलिए, वह मनुष्य-लोक में आ नहीं सकता । मरकर नरक में पडा हुआ प्राणी यहाँ नहीं आ सकता, इसका कारण उसकी परतन्त्रता है, यह नहीं कि नरक नाम की कोई गति ही नहीं है ।" राजा - 'जीव कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, मेरी इस मान्यता को ढ़ीभूत करने वाला दूसरा उदाहरण सुनिये | इसी नगर में मेरी एक दादी थी, और वह जीव अजीव आदि तत्त्वोंकी जानकार थीं और सयम तथा तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करती थीं। मेरी उस दादी की मृत्यु हो गयी और वह आपके कथनानुसार स्वर्ग में गयी होगी, उस दादी का मै बड़ा प्रिय पौत्र था, वह मुझे देखकर गद्गद् हो जाती थीं । उन्हें स्वर्ग से आकर मुझ से कहना चाहिए था कि, 'हे पौत्र ! तू भी मुझ जैसा धार्मिक बनना, ताकि तुझे स्वर्गसुख प्राप्त हो' । पर, वह अभी तक मुझसे ऐसा कहने नहीं आयी, इसलिए नरक की तरह स्वर्ग की बात भी मेरे
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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