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________________ ३६६ आत्मतत्व-विचार अच्छे मनुप्य का बाँधेगा। इस तरह सम्यक्त्व से प्रगति करते हुए आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। शास्त्रकार कहते है कि 'सम्यग्दृष्टि जीव नारकी या तिर्यंच नहीं होते, बशर्ते कि सम्यक्त्व स्थिर रहे। अगर वह समकिती से मिथ्यादृष्टि हो जाये तो उसका परिणाम भोगना पड़ता है। मिथ्यादृष्टि तो चारों गतियों में से किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है और नीचे नरक का भी आयुष्य बाँध सकता है। सम्यक्त्व कायम रहे, तो आत्मा सात-आठ भव में मोक्ष चला जाता है। सम्यक्त्व स्थिर न रहे तो अधिक भवो में भ्रमना पडता है। प्रकार सम्यक्त्व की विराधना करे तो भी ससार बढ जाता है, लेकिन वह बढ कर भी अर्द्ध पुद्गल परावर्तन से अधिक नहीं बढता। चन्धन और मोक्ष का कारण मन है ससार-बन्धन और मुक्ति का कारण मन है । मन जब पापक्रियाओं में लिप्त होता है, तो कर्म-बन्धन का कारण बन जाता है और धर्म की शुद्ध आराधना में लगता है, तो मुक्ति का कारण बनता है। शुद्ध आराधना वह है जो श्रद्धापूर्वक हो, सम्यक्त्वपूर्वक हो, जिनेश्वर भगवान् के वचना नुसार हो, सिद्वान्तानुसार हो। कुछ लोग कहते हैं कि, जो क्रिया जानपूर्वक हो उसे ही शुद्ध आराधना समझना चाहिए । पर, यहाँ प्रश्न यह होता है कि कितना ज्ञान प्राप्त करने के बाद क्रिया की जाये? क्या केवलज्ञान प्राप्त हो जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए और तब तक क्रिया की ही न जाये ? और, केवलजान प्राप्त होने पर तो क्रिया की आवश्यकता ही क्या है ? इस तरह तो क्रिया का सम्पूर्ण उच्छेद ही हो जायेगा। इसलिए यही ठीक है कि, ज्यों-ज्यों जान प्राप्त होता जाये, त्यों-त्यों क्रिया करते जायें। जो क्रिया सम्यक् वपूर्वक हो, शुद्ध बुद्धि से की गयी हो, उसे ही शुद्ध समझना
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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