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________________ ३६४ आत्मतत्व-विचार संसार - सागर में रखड़ते ही रहे और विभिन्न योनियों में जन्म धारण करके दुःख पाते ही रहे । मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मिथ्यात्व का अर्थ है झूठी मान्यता । सम्यक्त्व का अर्थ है - सच्ची मान्यता ॥ वस्तु हो एक प्रकार की और मानी जाये दूसरे प्रकार की, इसे मिथ्यात्व समझना चाहिए । एक मनुष्य परमात्मा को मानता है, पर उसे अवतार लेने वाला मानता है, तो वहाँ मिथ्यात्व जानना, क्योंकि परमात्मा ने तो सब कर्मों का नाश कर डाला है, इसलिए वह फिर संसार में नहीं पड़ सकता । उसी प्रकार कोई आदमी आत्मा को माने पर उसे क्षणभंगुर माने या यह माने कि वह परमात्मा में लय हो जाता है, तो इसे भी मिथ्यात्व जानना चाहिए, क्योंकि आत्मा नाशवत नहीं, अमर है । संसार की वस्तुओं को यथार्थ रूप से जाननेवाला सर्वज्ञ है । हम चूँकि छद्मस्थ हैं, इसलिए यथार्थ रूप से नहीं समझ सकते । इसलिए सर्वज्ञ परमात्मा ने जो कहा है, उसे ही सच्चा मानना — इसी में सम्यक्त्व है । मिथ्यादृष्टि की मान्यता इससे विपरीत होती है । वह वस्तु को मनमाने तौर पर मानता है, लेकिन इस तरह मानने से फायदा नहीं, नुकसान ही नुकसान है । सम्यग्ष्टि और मिध्यादृष्टि की करनी में अन्तर किसी जीव को मारने की जरूरत पड़े तो सम्यग्दृष्टि भी मारेगा और मिध्यादृष्टि भी । लेकिन, दोनों के मारने में फर्क होगा । सम्यग्दृष्टि उसे फर्ज समझकर, रस लिए बिना, सिर पर आ पड़ा काम मानकर, पाप समझकर करेगा; इसलिए उसे ढीला कर्मबन्ध होगा। पर, मिथ्यादृष्टि उसे जानबूझ कर, रसपूर्वक, उसे पाप न मानकर करेगा, उसे प्रबल कर्मबन्ध होगा । इसलिए ·
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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