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________________ ३६० श्रात्मतत्व-विचार दलिया उदय मे आती हैं । इस तरह एक के बाद दूसरी आवलिका की दलिया उदय में आती जाती है और भोगे जाकर खिरते जाते हैं । जिस प्रकार पहली अवलिका में भोगने योग्य कर्म का उदय होता है, उसी रूप में दूसरी अकलिका में भोगने योग्य दलिया सत्ता में आती है । जब यह दलिया भोगी जाती हो, उतने अवलिका प्रमाण काल को उदयावलिका कहते हैं । उदयावलिका प्रविष्ट कर्म की दलिया को करण (एक प्रकार की विशिष्ट क्रिया ) नहीं लगता । यह करण-मुक्त होता है । पर, उसके बाद की जिस अवलिका में कर्म को दलिया उदय में आने वाली होती है, या जो सत्ता में हो, उसे करण का झपाटा लगता ही है । पहली अवलिका में कर्म के पुद्गलों के जितने जत्थे भोगने को होते हैं, वह फल देकर खिर जाते हैं। उसे कर्म की निर्जरा कहते हैं। सुख-दुःख कर्म के कारण हैं और वे उदय में आकर समाप्त हो जाते हैं । इसीलिए, सुज्ञ व्यक्ति न तो सुख में उन्मत्त होता है और न दुःख में घबराता है । अवलिका का अर्थ क्या ? सिद्धान्त की भाषा में पूछें तो असख्यात समय की एक अवलिका होती है। पर, व्यवहार में तो असख्यात समय की गणना नहीं हो सकती इस दृष्टि से शास्त्रकारो ने बताया है कि, ४८ मिनंट में १,६७,७७,२१६ अवलिकाएँ होती हैं । इस प्रकार मिनट का सेकेंड, सेकेड का प्रति सेकेंड, प्रति सेकेंड का प्रति प्रति सेकेंड और उसका प्रति- प्रति प्रति सेकेंड बनायें तो अवलिका निकले। इस प्रकार एक अवलिका में जितना समय होता है, उतने समय में यदि कर्म (उदय प्रविष्ट कर्म ढलिया) भोगा जाये तो उसे करण नहीं लगता । यदि एक कर्म १०० वर्षों तक भोगना हो, तो उसका आवलिकाप्रमाण भाग पड जाता है। उसमें कौन पहले आये और बाद में कौन आये, इसका निश्चय करनेवाला कोई अन्य नहीं होता । वह स्वतः तथा आत्मा के बल के आधार पर निश्चित होता है । जिस-जिस कर्म का काल पका होता है, अर्थात् जिस-जिस कर्म. का
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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