SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यवसाय ३४३ यह उत्तर सुनकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ- प्रभु ने क्षण भर पहले सातवा नरक कहा और अब सर्वार्थसिद्धि-विमान कहते है ! उनके मन म कुछ मनोमन चला कि, दुदुभि बजने लगी और जयनाद होने लगे । श्रेणिक राजा ने पूछा - "हे प्रभु | यह दुंदुभि क्यो बज रही है ? और, जयनाद कैसा हो रहा है ?" प्रभु ने कहा - "हे राजन् ! प्रसन्नचन्द्र - राजर्षि को केवलज्ञान प्रकट हुआ है, इसलिए देव-दुंदुभि बजा रहे है और जयनाद कर रहे है ।" यह उत्तर सुनकर राजा श्रेणिक को और भी आश्चर्य हुआ । समाधान प्राप्त करने के लिए उन्होंने प्रभु से कहा - "प्रभो । ये आश्चर्यभरी घटनाएँ मेरी समझ मे नहीं आयीं, कृपाकर इनका रहस्य समझाइए יין प्रभु महावीर बोले- " राजन् । जब तुम यहाँ आ रहे थे, तब तुम्हारे जुलूस के आगे चलने वाले टो सिपाही प्रसन्नचन्द्र ऋषि के विषय में जो बातें करते आ रहे थे, वह उन्होंने सुनीं तो ध्यान से विचलित हो गये । उस समय उन्हें ऐसा विचार आया - "आज तक मैने जिनका सम्मान किया, जिनपर पूरा विश्वास रखा, वे ऐसे कृतघ्न निकले ! क्या वे मेरे बाल कुँवर को मार डालेंगे ? नहीं नहीं, मै ऐसा नहीं होने दूँगा । मैं इन दुष्टों की शान ठिकाने लगा दूँगा ।" ऐसा विचार करते हुए वे क्रोधायमान हुए और वह क्रोध बढता ही गया । ऐसा करने से वे अपना सामायिक व्रत चूक गये । वे उनके साथ भयकर काल्पनिक युद्ध करने लगे । शस्त्रों से उनका मुकाबला करते रहे । यहाँ तक कि उनके सब शस्त्र समाप्त हो गये और दुश्मन भी खत्म हो गये । लेकिन, एक बाकी रह गया । तब उनको विचार आया - " अपनी लोहे की टोपी से इसका भी नाश कर दूँ ।" ऐसा तुमने उन्हें उत्तर मैने यह दिया सोचकर वे अत्यन्त क्रोधायमान हुए। उसी समय हे श्रेणिक ! प्रणाम किया था । इसलिए, तुम्हारे पहले प्रश्न का कि वह सातवें नरक जायेंगे ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy