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________________ आठ कर्म ३३५ उद्योतनामकर्म : इस कर्म के उदय से जीव का गरीर शीतप्रकाशरूप उद्योत करता है। ज्योतिपी के विमान के जीव इस प्रकार के होते है । जुगनू और कितनी ही वनस्पति आदि के जीव भी इस प्रकार के होते हैं । यति और देव के उत्तरवैक्रिय शरीर में भी उद्योतनामकर्म का उदय होता है। श्वासोच्छवासनामकर्म : इस कर्म के उदय से जीव को श्वासोच्छ- बास (ऊँचा श्वास और नीचाश्वास ) लेने की लब्धि प्राप्त होती है । निर्माणनामकर्म : इस कर्म के उदय से जीव अगोपाग का निर्माण करता है। तीर्थकरनामकर्म : इस कर्म के उदय से जीव तीनो भुवन मे पूज्यनीय होता है, तथा चौतीस अतिशय, पैंतीस गुणवाली वाणी और अष्ट महाप्रातिहार्य युक्त बनता है। तीर्थङ्कर नामकर्म का उदय केवलजान पाने पर ही होता है, उससे पहले नहीं । स्थावरदशक और त्रसदाक ये दोनो प्रतिपक्षी हैं, इसलिए इनका विचार साथ ही करेंगे । स्थावरनामकर्म से प्रारम्भ होनेवाली १० प्रकृतियाँ स्थावरदशक हैं और त्रसनामकर्म से शुरू होनेवाली १० प्रकृतियाँ सदशक हैं । दोनो की मिलकर कुल २० प्रकृतियाँ होती हैं। स्थावरनामकर्म से जीव को स्थावरपन प्राप्त होता है। वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन नहीं कर सकता। त्रसनामकर्म से जीव को सपन प्राप्त होता है। वह एक स्थान से दूसरे स्थान को गमनागमन कर सकता है । पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीव स्थावर हैं। बेइन्द्रिय और उनके आगे के जीव त्रस हैं। सूक्ष्मनामकर्मसे जीव को अति सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है जो कि किसी भी इन्द्रिय से नहीं जाना जा सकता और वादरनामकर्म से जीव को स्थूल शरीर प्राप्त होता है जो कि इन्द्रियों से जाना जा सकता है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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