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________________ पाठ कर्म गरीर, (४) उपाग (५) बधन, (६) मधात, (७) संहनन, (८) सस्थान, (९) वर्ण, (१०) रस, (११) गध (१२) स्पर्ग, (१३) आनुपूर्वी, और (१४) विहायोगति । ___ गति शब्द का सामान्य अर्थ है-जाना । लेकिन, यहाँ एक भव से दूसरे भव में जाने की क्रिया के लिए उसका प्रयोग हुआ है। उदाहरण के रूप में जब कोई आत्मा मनुष्य-भव का आयुष्य पूरा करके देवता के भव में जाने के लिए प्रस्थान करे, तो उस क्षण से लेकर वह जब तक देवता के भव में रहे, तब तक देवगति कहलायेगी। दूसरी गतियो के लिए भी इसी प्रकार समझना। गति चार हैं-(१) नरक, (२) तियेच, (३) मनुष्य और (४) देव । नास्त्रों में पचमगति शब्द का भी प्रयोग हुआ है । उस गति को केवल कमरहित आत्मा ही प्राप्त करती हैं—कर्म वाले नहीं। कर्म वाली आत्मा तो इन चार गतियो मे ही भ्रमण करते रहते हैं और अपने कर्मों का फल भोगते हैं। इनमें से किसी गति में उत्पन्न करानेवाला कर्म गतिनाम कर्म है। जाति पाँच है-(१) एकेन्द्रिय, (२) वेइन्द्रिय, (३) तेइन्द्रिय,. (४) चौइन्द्रिय और (५) पचेन्द्रिय । इन पॉच जातियो मे से किसी भी एक जाति में उत्पन्न कराने वाला कर्म जाति नामकर्म है। ससार के सत्र जीव इन पाँच जातियों में समा जाते हैं। शरीर जीव के लिए क्रिया करने का साधन है। उसके पॉच प्रकार हैं-(१) औदारिक, (२) वैक्रियक, (३) आहारक, (४) तैजस और (५), कार्माण | *पच सरी। पएणत्ता त जहा ओरालिए वेउविए आहारए तेयए कम्मए पन्नवणा सूत्र १७६ ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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