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________________ ३१६ आत्मतत्व-विचार रखते है और जिसका दान करते है, वह प्रायः न्यायोपार्जित नहीं होता, और धर्म में दृढ़ नहीं रहे । कोई टेढा बोले, अधिकारी ऑखें दिखाये या कुछ नुकसान सहन करने का प्रसग आये तो ढीले पड़ जाते है और धर्म को छोड़ देते है । इस वस्तुस्थिति में सुधार हो, तो शाता का परिमाण बढ़े और आपके जीवन में किसी तरह की हाय-तोबा न रहे । मोहनीय-कम जिस कर्म के कारण जीव मोहग्रस्त होकर ससार में फंसता है, उसे मोहनीयकर्म कहते है। यह कर्म मदिरापान की तरह है। मदिरापान करने से जैसे आदमी को अपना भान नहीं रहता, उसी तरह इस कर्म के कारण मनुष्य की विवेकबुद्धि तथा वर्तन ठिकाने नहीं रहता। __आत्मा को ससारी बनाने में, उसकी शक्तियो को दबाने में मोहनीयकर्म का हिस्सा सबसे बड़ा होता है । इसलिए उसे कर्मों का राजा कहा जाता है। जब तक यह राजा बलवान रहता है, तब तक सब कमें बलवान रहते हैं और जब यह राजा ढीला पड़ा कि सब कर्म ढीले पड़ जाते है। आत्मा ज्ञानी हो तो मोह ढीला पड़े। अज्ञान मे मोह जोर पर रहता है । इसलिए ज्ञान प्राप्त करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए । यहाँ 'जान' शब्द से धार्मिक ज्ञान या आत्मज्ञान समझना चाहिए । कारण कि व्यावहारिक जान से मोह कम नहीं होता। मोहनीय-कर्म का नाश हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान की प्राति हो जाती है। मोहनीय-कर्म के दो विभाग हैं--(१) दर्शनमोहनीय और (२) चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय मान्यता, विश्वास, श्रद्धाको उलझन में डालता है और देवगुरु धर्म के प्रति अश्रद्धा पैदा करता है। चारित्रमोहनीय वर्तन को विकृत बनाता है। मनुष्य समझदार हो फिर भी सत्य पदार्थ को मानने मे पसोपेश करता है; या सत्य वस्तु पर विश्वास नहीं ला पाता । इसलिए, मानना
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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