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________________ आत्मतत्त्व-विचार रहित तथा मक्लेश रहितं परिणामवाली है, वे परिमित संसारी बनती है । N ये वचन गमीर है । इनका यथार्थ भाव समझने के लिए, पहले आत्मा का स्वरूप समझना होगा, आत्मस्वरूप में भी पहले आत्मा के अस्तित्व का विचार करना होगा, क्योकि आत्मा के अभाव में आत्मस्वरूप संभव ही नहीं हैं । 'मूल नास्ति कुतः शाखा ? अगर मूल ही न हो तो डाली पत्ते कैसे सम्भव हैं ? बालकार भगवत ने सम्यक्त्व के ६७ बोलें कहे है, उनमें से ६ बोल सम्यक्त्व के स्थान से सम्बन्धित हैं, वे इस प्रकार है : श्रत्थि जिनो तह निच्चा, कत्ता भोत्ताय पुन्नपावाणं । अस्थि धुवं निव्वाणं, तदुवायो श्रत्थि छट्ठाणे ॥ - १ जीव है, २ वह नित्य है, ३ वह कर्म का कर्ता है, ४ वह कर्मफल का भोक्ता है । ५ मोक्ष है और ६ उसका उपाय भी है । जो यह मानते हैं कि 'जीव है', यानी जो जीवका अस्तित्व मानते हैं, उन्हे ही सम्यक्त्व स्पर्श कर सकता है, दूसरो को नहीं । अगर जीव या आत्मा जैसी किसी स्वतंत्र वस्तु को न माना जाये, तो पुण्य-पाप का विचार निरर्थक हो जाये, स्वर्ग-नरक की बातें भी निरर्थक हो जाये और पुनर्जन्म या परलोक की बातें भी अर्थहीन हो जाये, इसलिए ? मल अर्थात् मिथ्यात्व आदि दोप २ मक्लेप अर्थात् रागद्वे पजन्य जीव का परिणाम ३ जिन्हें ससार में मर्यादित समय तक ही परिभ्रमण करना है, वे परिमितममारी या अल्प-ममारी कहलाते हैं- परिमित ससारी होना आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत बडी प्रगति है । ४४ श्रद्वा, ३ लिंग, १० विनय, ३ शुद्धि, ५ दूषण, ८ प्रभावना, ५ भूषण, ५ लक्षण, ६ यतना, ६ श्रागार, ६ भावना और ६ स्थान - ये शुद्ध सम्यक्त्वके ६७ भेद हैं |
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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