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________________ योगवल ३०३ यह सुनकर दोनो भाई भयभीत हुए। रयणादेवी ऐसी कर-घातकीनिष्टुर होगी, इसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। उन्होने उस आदमी से पूछा-"रयणा देवी के पजे मे छूटने का कोई उपाय भी है ?" वह आदमी बोला-"पूर्व दिया के वनखड में एक यक्ष का मदिर है। उसमें सेलक-नामक यक्ष रहता है। वह अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रकट होकर कहा करता है : 'किसका रक्षण करूँ ? किसको तारूँ ?' तब तुम लोग कहना हमारा रक्षण करो।' हमें तारो। हे देवानुप्रियो | तुम दोनों वहाँ जाओ और उसकी विविध प्रकार के पुष्पो से बहुमानपूर्वक पूजा करो । इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है।" दोनो भाई पूर्व दिशा के वनखड मे गये । वहाँ एक मनोहर जलागय में स्नान किया । पास के सरोवर से कमल के फूल तोड़े और यक्षमूर्ति को भावपूर्वक प्रणाम करके उसकी कमल-पुष्पो से पूजा की। फिर, उसकी पर्युपासना करते हुए सामने बैठे रहे । अनुक्रम से सेलक-यक्ष प्रकट हुआ और बोला-~-"किसका रक्षण करूँ ? किसको तारूँ ?" तब दोनो भाइयों ने कहा-'हमारा रक्षण करो । हमें तारो" सेलक यक्ष ने कहा- "हे देवानुप्रियो । तुम्हें बचाने के लिये मैं तैयार हूं, लेकिन मेरी एक बात सुन लो। मैं अश्व का रूप धारण करके तुम्हें अपनी पीठ पर बिठाकर लवण समुद्र पार करके तुम जहाँ जाना चाहोगे पहुँचा दूंगा । परन्तु, इस तरह जब मै लवण-समुद्र के मध्यमे आऊँगा, तब रवणादेवी तुम्हारा पीछा करती हुई आ पहुंचेगी और प्रतिकूल और अनुकूल उपसर्गों द्वारा तुम्हें चलायमान करने का प्रयत्न करेगी। इस समय अगर तुम चलित हो गये और उसके प्रति आकृष्ट हो गये तो उसी क्षण मै तुम्हे अपनी पीठ से फेंक दूंगा । इसलिए सोच कर उत्तर दो।" सार्थवाह के पुत्र किसी तरह रयणादेवी के पजे से छूटना चाहते थे, इसलिए उन्होंने यह शर्त स्वीकार कर ली। यक्ष ने अश्व का रूप धारण किया और उन्हे पीठ पर बिठाकर लवण-समुद्र लॉघने लगा।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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