SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९६ आत्मतत्व-विचार स्तवन, सज्झाय, आदि में वह अनेक बार आया है। वहाँ अष्टकर्म से कर्म की इन मूल आट प्रकृतियों को ही समझना चाहिए। आयुष्य-कर्म का बंध कब और कैसे होता है ? कर्म की आठ प्रकृतियों में से आयुष्य-कर्म का बध एक ही बार होता है । डोष सात प्रकृतियो का बध समय-समय पर होता रहता है। कोई भी ससारी आत्मा ऐमी नहीं होती जो कि अपने भव मे आयुष्यकर्म बाँधे वगैर रहे। आयुष्य-कर्म की अवधि तक ही जीया जा सकता है, उसके पूरा होते ही देह छोड़नी पडती है और नयी देह धारण करनी पडती है । आपने बम्बई से सूरत तक टिकट निकाला हो तो बम्बई से सूरत तक ही यात्रा करनी पड़ती है। सूरत स्टेशन पर नीचे उतरना ही पड़ता है। इससे आप बात भली प्रकार समझ गये होगे। पिछले जन्म में आप जो आयुष्य-कम बाँधकर आये, उसे इस जन्म में भोगेगे और वर्तमान जन्म में जो आयुष्य-कर्म बाँधेगे उसे अगले जन्म मे भोगेंगे । जब तक आपका आयुष्य हो तत्र तक जिन्दा रह सकते हैं और जीवन का सदुपयोग करें तो आत्महित कर सकते है। अगर, यह जीवन यूँ ही बरबाद कर दिया, तो भारी कर्मबंध होगा और उसके फल भोगने के लिए विविध योनियों में परिभ्रमण करना पड़ेगा। वहाँ कैसे-कैसे दुःख भोगने पड़ते हैं, यह आप अच्छी तरह नानते है। इस जन्म में कैसा आयुष्य बॉधना यह आप के हाथ में है। अगर टान, गील, तप, भाव आदि का आराधन करेंगे तो मनुष्य या देव का आयुष्य बाँध सकेंगे और अगर भोग-विलास या दुराचार में पड़ेंगे तो तियेच या नारकी का आयुष्य वेगा। आप मानते है कि ज्यो-ज्यो दिन बीतते है, त्यो-त्यो आपकी आयु बढ़ती है । लेकिन, यह एक प्रकार का भ्रम है. एक दिन गया कि उतनी
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy