SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ अात्मतत्व-विचार पावर' की संज्ञा का उपयोग होता है जैसे अमुक मगीन में ५० हार्सपावर का बल है, अमुक में १०० हासपावर का। बिजली की शनि बताने के लिए 'बोल्ड' गळ प्रयोग में आता है। उसी प्रकार 'योगस्थानक योग का बल बतलाने वाली संजा है। योगवट का प्रमाण अनंत होने के कारण योगस्थानक असंख्य प्रकार के मम्भव है। प्रदेशबंध इससे बताने का उद्देश्य यह है कि, आत्मा मे हर समय कोई-न-कोई एक प्रकार का योगस्थानक अवश्य होता है और आत्मा उस योगस्थानक के परिमाण के अनुसार ही कामणि-वर्गणाएँ ग्रहण करता है। अगर योगम्यानक मद हो तो आत्मा कम कार्माण-वर्गणाएँ ग्रहण करता है, और अगर वह तीव्रतर, तीव्रतम हो तो उसीके अनुरूप अधिक-जैसे करघा धीमे चलता हो तो कम कपडा बुनता है और तेज चलता हो तो ज्यादा । कार्मण-वर्गणाएँ ग्रहण किये जाते ही आत्मप्रटेगो के साथ मिल जाती हैं तथा पहले के कर्मों के साथ चिमट जाती हैं । आप पूछेगे कि, नये कर्म पुराने कर्मों से किम तरह चिमट जाती है। यहाँ यह जानना चाहिए कि नये कर्मों के परमाणुओ में चिकनाहट होती है। इसी कारण वह पुराने कर्मों से चिमट जाती हैं। इस क्रिया में कार्माण-वर्गणाओ के परमाणुओ का समूह आत्मप्रदेशों के साथ मिश्र होता है, इसलिए उसे प्रदेशबंध कहा जाता है। प्रकृतिबंध भी योगवल से ही होता है चार प्रकार के कर्मबंध मे से प्रदेशबंध की चर्चा हो गयी । बाकी रहे तीन कर्मबंध-प्रकृतिबंध, स्थितिवध और रसबंध । इनमें से प्रकृतिबध भी योगबल से ही होता है। एक साथ दो बध किस रूप में पड़ते हैं ? यह प्रश्न कदाचित् आपके मन में उठता हो । पर, एक साथ अनेक क्रियाएँ हो सकती है। एक
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy