SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रात्मतत्व- विचार जैसे किसी को लड्डू वायु करता है, किसी को पित्त करता है और किसी को कफ करता है । ये उस व्यक्ति के स्वभाव कहे जाते हैं । स्वभावानुसार कोई कर्म ज्ञान को रोके, कोई कर्म दर्शना को रोके और कोई कर्म' शक्ति को रोके, तो यह भी उसका स्वभाव कहलात है । कर्मों के बॅधते वक्त इस स्वभाव का निश्चय हो जाता है । जैसे वृक्ष को फल लगने का समय होता है, वैसे ही कर्म को फल देने का काल होता है । यह काल कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त का और ज्यादा-सेज्यादा सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम होता है । कर्मों के बँधते समय यह काल नियत हो जाता है । कर्म बाँधते समय तीव्र या मद जैसे परिणाम हो, वैसा रस पड़ता है और जैसा रस पड़ा हो वैसा अतितीत्र, तीत्र, मद या मदतर फल भोगना पड़ता है । २८८ आत्मा अपने निकटस्थ कर्मस्कन्धों को योग द्वारा अपनी ओर खींचता है और अपने प्रदेशों में ओतप्रोत कर लेता है । इसे शास्त्री परिभाषा मे प्रदेश बन्ध कहते हैं | यहाॅ यह बतला देना आवश्यक है कि, जिन आकाश-प्रदेशो मे आत्मप्रदेश अवगहन कर रहे है, उन्हीं आकाश-प्रदेशों में कर्मयोग्य पुद्गल स्कन्ध भी अवगाहन रह रहे है । ऐसे ही पुद्गल-स्कन्धों को जीव ग्रहण कर सकता है । जिन आकाश प्रदेशो में आत्मा ने अवगाहन नहीं किया और जो कर्मस्कन्ध आत्मप्रदेशों से दूर है उनका कर्मरूप में ग्रहण या परिणमन नहीं होता । आत्मा के प्रदेशों के साथ अवगाढ कर्मस्कन्धो में से भी जीव उन्हें ही ग्रहण कर सकता है जो स्थित यानी स्थिर हो, अस्थिर यानी चंचल कर्मस्कन्धों को ग्रहण नहीं कर सकता । जीव कर्मवध दो प्रकार से करता है-निकाचित और अनिकाचित | कर्म बाँधते वक्त जीव अगर कपाय के तीव्र परिणाम और लेग्या वाला हो, तो उसे निकाचित कर्मबन्ध होता है, और अगर मन्द परिणाम और
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy