SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रात्मतत्व- विचार अगर शुद्ध यानी कर्म रहित आत्मा को भी कर्म का बन्ध माना जाये तो मुक्ति शाश्वत सुख का धाम नहीं बन सकती, क्योकि मुक्त आत्माओ को भी चाहे जब कर्मबन्ध होने लगेगा और परिणामत दुःख भोगना पडेगा । अगर मुक्ति शाश्वत सुख का धाम नहीं है, तो उसके प्राप्त करने से भी क्या लाभ ? कोई बुद्धिमान पुरुष उसके लिए प्रयत्न नहीं करेगा । धर्म भी मुक्ति के लिए ही किया जाता है । इसलिए उसकी भी आराधना निरर्थक ठहरेगी। इस प्रकार शुद्ध आत्मा को कर्मबन्ध मानने से अनेक दोप आते हैं । इसलिए यह मानना उचित नहीं है कि, आत्मा पहले शुद्ध था और बाद में कर्मों से लिप्त हो गया ।' રદ્ सत्य तो यह है कि आत्मा अनादिकाल से कर्मयुक्त है और कर्मबाँधना और कर्मफल भोगना निरन्तर चालू रहता है, इसलिए वह कभी सर्वथा कर्मरहित नहीं हुआ । अगर वह कभी सर्वथा कर्मरहित हो गया होता तो अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से लोक के अग्रभाग में पहुँचकर सिद्धशिला पर विरान रहा होता, चार गति और चौरासी लाख जीवयोनिरूप ससार में भटक कर विविध दुःखों का अनुभव न करता होता । 1 " आत्मा पहले से कर्मयुक्त किस प्रकार होता है ?" यह प्रश्न कितनो के मन में उठता है | पर, उसका समाधान सरल है । प्रारम्भ मे सोना खान मे होता है । वहाँ वह मिट्टी मिला होता है। सोना खान मे मे बाहर निकाला जाने के पश्चात् अनेक प्रकार के औषधि प्रयोग से शुद्ध किया जाता है । उसके बाद वह पीले रंग की धातु के रूप में हमारा ध्यान आकृष्ट करता है । उसी प्रकार आत्मा धर्म के साधन प्राप्त करके ज्यों-ज्यों शुद्ध होता जाता है, त्यो त्यो उसका प्रकाश बढता जाता है और अन्त मे शुभ व्यान की धारा से चढकर सभी कमों का क्षय प्रकाश की पूर्ण कला से खिल उठता है । करता है । तब वह
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy