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________________ श्रात्मतत्व- विचार एक महानुभाव प्रश्न करते हैं -- " आत्मा को कर्मबन्धन कत्र प्राप्त हुआ ?" इसका यहाँ उत्तर देंगे । यह बात नहीं है कि आत्मा पहले शुद्ध था और बाद में उससे कर्म चिमट गये । कारण कि शुद्ध आत्मा को भी कर्म लग जाते हों तत्र तो मुक्तावस्था या सिद्धावस्था प्राप्त हो जाने के बाद भी कर्मबन्धन का प्रसग आ जायेगा । और, सिद्धों को पुनः ससार मैं भ्रमण करना पड़ जायेगा । कुछ लोग ऐसा मानते है कि, सिद्ध जीव भी जगत् के लोगो को दुःखी देख कर उनका उद्वार करने के लिए मृत्युलोक में जन्म लेते है । पर, यह मान्यता सिद्धान्तसिद्ध नहीं है, युक्तिसंगत भी नहीं है । श्री विशेषावश्यक भाष्य में 'सिद्ध' का अर्थ इस प्रकार किया है. २७४ "दीहकाल- रयं जंतु, कम्मं से सियमट्ठा । सियं धंतं ति सिद्धस्स, सिद्धत्तमुवजायइ ॥३०२६ ॥ " - कर्म प्रवाह की अपेक्षा दीर्घकाल की स्थिति वाला है और स्वभाव से आत्मा को मलिन करने वाला है । वह आठ प्रकार से बँधता है । इस कर्म को जला डाले, उसका क्षय कर डाले, वह 'सिद्ध' अष्टविध कहलाता है, कारण कि वह सिद्ध की सिद्धि है । शास्त्रों मे ११ प्रकार के सिद्धों का वर्णन आता है, (१) कर्मसिद्ध (क्रियासिद्ध), (२) शिल्पसिद्ध, (३) विद्यासिद्ध, (४) मंत्रसिद्ध, (५) योगसिद्ध, (६) आगमसिद्ध, (७) अर्थसिद्ध, (८) यात्रासिद्ध, (९) अभिप्रायसिद्ध, (१०) तपःसिद्ध और (११) कर्मक्षयसिद्ध । इनमे से केवल अन्तिम कर्मक्षयसिद्ध को ही हम यहाँ 'सिद्ध' कह रहे हैं। णमोकार मंत्र मे ऐसे ही 'सिद्धों' को नमस्कार किया गया है । विचार, आसक्ति या इच्छा कर्मजन्य वस्तुएँ हैं । ये ऐसे सकल-कर्मरहित सिद्धात्माओ को कैसे हो सकती हैं ? इसलिए जगत के लोगो को दुःखी देखकर उनका उद्धार करने की भावना से यहाँ आना और जन्म लेना असंभव है | जन्म, जरा और मृत्यु भी कर्मजन्य अवस्थाएँ है, और
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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