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________________ श्रात्मसुख २३७ नित नयी इच्छायें करते रहना, अनेक प्रकार की लालसाऍ रखना, तृष्णा का तार झनझनाता रखना और वह पूर्ण न हो तो हायतोबा मचाना, इससे तो अच्छा यह है कि तृष्णा को तिलाञ्जलि ही दे दी जाये । आर्य महापुरुषो ने हमे इच्छानिरोध, तृष्णात्याग और सन्तोप का सन्देश दिया है । तदनुसार जीवन-व्यवहार चलाये तो दुःख या अगाति का अनुभव कभी न हो । लेकिन, आज इस सन्देश की अवगणना हो रही और भौतिकवादी सिद्धान्त 'खूब कमाओ और खूब खाओ', 'इच्छाओ को चढाओ और उनकी तृप्ति करो' की ओर लोकप्रवाह मुड़ता जा रहा है । उसी का फल है कि अगाति बढती जा रही है । एक ओर धन का अति-सचय और दूसरी तरफ धन का अत्यन्त अभाव देखा जाता है । बेकारी और गरीबी के कारण हडताल, प्रदर्शन, उपद्रव आदि बढते जा रहे हैं। समाज का एक भाग परिग्रह महापाप और अतिभोग से पीड़ित है तो दूसरा भाग अभाव, गरीबी और दरिद्रता से पिसता जा रहा है । ज्यादा पैसा मिलने से आदमी सुखी होगा यह मानना सरासर भ्रान्ति है । नासमझ लोगों के हाथ में अधिक धन आ जाने पर उसका कैसा दुरुपयोग होता है यह सब जानते हैं। जरूरत तो समझदारी और सन्तोप प्राप्त करने की है। अगर सन्तोष हो तो आदमी किसी भी परिस्थिति मं आनन्द मना सकता है । एक कवि ने कहा है कि सर्पा पिवन्ति पवनं न च दुर्बलास्ते, शुष्कैस्तृणैर्वनगजा बलिना भवन्ति । वन्यैः फलैर्मुनिवरा गमयन्ति कालं, सन्तोष एवं पुरुषस्य परं निधानम् ॥ - सर्प मात्र पवन का भक्षण करके रहते हुए भी दुर्बल नहीं होते; वन के हाथी मात्र सूखी घास खाते रहने पर ऋषिमुनि मात्र कन्द और फूल खाकर समय भी बलवान होते हैं और गुजारते है, फिर भी
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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