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________________ अात्मसुख २२६ सेठानी का विचार सेट को नमाने का था, पर विधवा होने का नहीं था, इसलिए उसने दरवाजा खोल दिया और दौड़कर सेठ को कुंए की तरफ जाने से रोका । फिर हाथ-पैर पडकर सेठ को घर में ले आयी । लेकिन, रस्सी जल जाये तो भी उसकी ऐटन नहीं जाती। वह सेठ से कहने लगी-"तुम्हे लिखकर देने में क्या ऐतराज है ? सिर्फ इतना लिख दो कि भविष्य में मैं रात को नहीं घूमा करूँगा !" सेठ बडा सरल था, स्वभाव से नम्र था, इसीलिए सेठानी ने यूं कहने की हिम्मत की। लेकिन, सेट को तो अब यह झगड़ा किसी तरह शात करना था, इसलिए उसने लिखकर सेठानी को दे दिया। सेठ की इस भलमनसाहत से सेठानी के दिल पर बडा असर पड़ा । उसने तुरन्त वह कागज फाड़ डाला और सेठ के पैर पकड़ लिये। अपनी भूल की माफी मांगी। फिर दोनो ने गुरु महाराज के पास जाकर सदाचार के व्रत लिये। __ उसके बाद सेटानी कभी स्वच्छन्द विचरने नहीं गयी, और पति की भलीभाँति सेवा करने लगी। ___ तथाकथित 'सुखी संसार' का भीतरी दृश्य क्या है, यह हम इस बात से जान सकते है। सासारिक सुखो की सब से बड़ी खराबी यह है कि उसकी लालसा में लिपटे हुए जीव को बारबार आत व्यान होता रहता है और उससे रौद्रध्यान भी उत्पन्न होता है । ये दोनो व्यान दुर्गति के कारण है। भगवत श्री हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र के नवें प्रकाश मे कहा है कि नाऽसद ध्यानानि सेन्यानि, कौतुकेनाऽपि किंत्विह । स्वनाशायैव जायन्ते, सेव्यमानानि तानि यत् ॥ --कौतुक के लिए भी असद-व्यानो का आलम्बन नहीं लेना चाहिये, क्योंकि उनके सेवन से अपना ही विनाश होता है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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