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________________ आत्मसुख २२३ ___ यह याद रखिए कि, राग-द्वेष की तीव्रता जितनी ज्यादा होगी उतना ही दुःख ज्यादा होगा। युगलियो को रागद्वेप की तीव्रता नहीं होती, इसलिए वे देव के समान सुख भोगते है और दुःख का अनुभव तो नहीं के बराबर ही करते हैं। __आप रागद्वेष घटाये, कषायो को मद करे, तो सुख का अनुभव अवश्य कर सकते है। शास्त्रकारो ने कहा है : 'कपायमुक्तिः किल मुक्तिरेव', अर्थात् कपायों को छोड़ देनेवाले को मुक्तात्मा के बगवर सुख मिलता है। 'वीतरागी सदा सुखी' इस आर्षवचन का रहस्य भी यही है। रागद्वेप का ससर्ग आपको अनादि काल से लगा हुआ है, इसलिए वह आपका स्वभावरूप बन गया है । लेकिन, आप अगर कुछ देर के लिए इन दोनों का त्याग कर दे, और वीतरागता का अनुभव करें तो आपको उपर्युक्त वचनो की सचाई प्रकट हो जायेगी । आप चतुर व्यापारी है। लाभ देखकर व्यापार करते हैं। फिर भी आपने पौद्गलिक सुख के बदले मे आत्मसुख बेचकर गहरी मार खायी है। आपने लाख रुपये का हीरा सेरभर गुड़ के लिए बेच मारा है। फिर भी आप अपनी चतुराई का दम भरते हैं। ___जब तक आप काल्पनिक, क्षणभगुर, तुच्छ पौद्गलिक सुखो को नहीं छोड़ेगे, तब तक आपको सच्चे आत्मसुख का स्वाद नहीं मिल सक्ता। भोरे और गुवरीले का दृष्टान्त सुनिए। आपको मेरे कथन की तथ्यता समझ में आ जायेगी। भौंरे और गुवरीले का दृष्टान्त एक सरोवर के किनारे एक मौरा रहता था। कुछ दूर पर एक गुबरीला भी रहता था। उन दोनो मे मैत्री हो गयी । भौरा गुबरीला के यहाँ जाया तो करता था, पर गोबर की दुर्गन्ध उससे सहन नहीं होती थी।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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