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________________ २२० आत्मतत्व-विचार __इतने प्रस्ताविक के साथ हम मूल विषय पर आये। अनादिकाल से मसार-सागर में परिभ्रमण करते हुए इस आत्मा ने सुख प्राप्त करने के लिए बहुत-बहुत प्रयत्न किये. फिर भी इसे सुख नहीं मिला। उसे भौतिक नुख जरूर मिलता रहा, पर आत्मिक सुख के सामने वह किस शुमार मे है ! ___शास्त्रकार महर्पि दुनियवी सुख और आत्मिक सुख की तुलना करते हुए बताते हैं कि 'चौदह रावलोक के हर आत्मा के भोगजन्य पौद्गलिक सुख को इकट्ठा करे और दूसरी और आत्मा का सच्चा सुख रखे तो भौतिक मुख आत्मिक सुख के अनन्तवे भाग के बराबर भी नहीं होगा। यहाँ प्रश्न होगा कि 'दुनियवी सुख आत्मिक सुख के अनन्त भाग के बराबर भी क्यों न होगा?' इसलिए कि भौतिक मुख पीतल है, आत्मिक सुख सोना! दोनो की क्या तुलना ? दुनियादारी का सुख भ्रमपूर्ण, काल्पनिक और तुच्छ है । वह आत्मा के अनिर्वचनीय अपार मुख का अनन्तवाँ भाग भी कैसे हो सकता है ? बहुत-मे छोटे बच्चे अपना अँगूठा चूसते है | समझते है कि दूध निकल रहा है, लेकिन वास्तव में तो उन्हें अपनी ही लार मिलती रहती है। हड्डी चबाने वाला कुत्ता नहीं समझता कि खून का मजा हड्डी मे नहीं, खुद के ही क्षत-विक्षत तालु मे मिल रहा है । ___ धन, वैभव, पत्नी, परिवार, मानपान, अधिकार आदि में आदमी मुन्न मानता है, परन्तु इन चीजो में से किसी में सुख देने की शक्ति नहीं है । मनुष्य ने उनमें मुम्ब की कल्पना कर रखी है, इसीलिये वे मुखदायक न्टगती है । कुछ विवचन से यह बात अधिक स्पष्ट हो जायेगी । एक आदमी बिलकुट निर्धन था। उमे एकाएक धन प्राप्ति होने लगा और आँकड़ा पाँच लाख तक पहुँचा। इससे वह अत्यन्त आनन्दित हुआ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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